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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २६५ असयुक्त 'न' के सबंध मे वैकल्पिक नियम है कभी वह 'ण' मे परिवतित होता है, कभी नही (प्राकृत व्याकरण, ११२२८१६) । यही बात 'हु-खु' तथा 'अपि पि-वि-मि-अवि, आदि के प्रयोगो के सबध मे है। प्राकृत वैयाकरणो ने व्याकरण के नियम बनाते समय जगह-जगह 'प्राय ' 'बहुल' 'क्वचित्', 'वा' आदि शब्दो का प्रयोग किया है। आगम-साहित्य मे कही महावीर के स्थान पर मवावीर, और देवेहिं के स्थान पर देवेभि आदि का प्रयोग हुआ है। प्रकाशित आगम-साहित्य मे ही नहीं, उनकी मूल प्रतियो मे भी भाषा की विविध रूपता देखने में आती है । मुनि पुण्यविजय जी ने भगवती सूत्र की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियो (क) वि० स० १११० की प्रति, (ख-ग) १३वी सदी की जैसलमेर की दो ताडपत्रीय प्रतिया, (घ) १३वी सदी की खंभात की प्रति (ड) १३वी सदी की बडौदा की प्रति-- का उल्लेख किया है जिनमे भाषा की दृष्टि से विविध प्रयोग पाये जाते है। ___ कहना न होगा कि भगवान महावीर तथा समय-समय पर होनेवाली अनेक वाचनाओ मे दीर्घकालीन व्यवधान पड जाने के कारण, मूल परम्पराओ के विस्मृत हो जाने से आगमो मे बहुत से परिवर्तन एव संशोधन करने पडे । अनेक स्थलो पर सूत्रो मे विसवाद उपस्थित होने के कारण स्वय नवागवृत्तिकार अभयदेवसूरि ने अपनी अल्पज्ञता की ओर लक्ष्य किया है (देखिये, स्थानागटीका, पृ० ४६६-५०० प्रश्न व्याकरण टीका, प्रस्तावना) । इसी प्रकार आचार्य मलयगिरि ने वाचनाभेद तथा सूत्रो के गलित हो जाने की ओर लक्ष्य करते हुए सूत्रो के अर्थ को सम्यक सप्रदाय' के द्वारा जानने और समझने की सिफारिश की है। हस्तलिखित प्रतियो की नकल करने वाले लेखक और सपादक भी कम दोषी नहीं । जहाँ कोई पा० उनकी समझ मे न आया अथवा उन्हे अनुकूल दिखाई न पडा तो उन्होने उसमे मन-माना परिवर्तन कर दिया। इस संबंध मे प्रोफेसर आल्सडोर्फ लिखते है स्वर्गीय प्रोफेसर लॉयमान के कागजो मे मुझे एक पुरजा मिला, जिस पर उन्होने विशेषावश्यक भाष्य के पाठ एकत्र किये थे। पा० मे वार-वार अद्यतन भूत (Aorist) का प्रयोग किया गया था, किन्तु लेखक ने उसकी जगह निश्चयार्थ सूचक वर्तमान काल लिखना पसंद किया। यह केवल एक उदाहरण है जबकि हस्तलिखित प्रतियो की नकल करने वालो ने व्याकरण के असामान्य प्रयोगो को निकाल दिया । हमे उसी से सतो५ करना होगा कि जो थोडा बहुत उन्होने छोड दिया है। आगम ग्रन्थों की शैली पालि त्रिपिटक की भाँति जैन आगम ग्रन्थो की शैली भी मन्दगति से अग्रसर
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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