SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान : २५३ अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। ___Woolner का Introduction to Prakrit कलकत्ते से १६२८ मे प्रकाशित हुआ था। उसकी उपयोगिता और लोकप्रियता को देखकर डॉ. बनारसीदास जैन ने उसका हिन्दी अनुवाद 'प्राकृत प्रवेशिका" के नाम से पजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से १६३३ मे प्रकाशित किया । "भारतीय नाटको तथा भारतीय भाषा-विज्ञान को सुगम बनाना इसका मूल उद्देश्य था । प्राकृत की विभिन्न स्थितियों का परिचय भी इस ग्रन्थ से हो जाता है। प० वेचरदास दोसी प्राकृत के मूर्धन्य विद्वान् है । उन्होने १६२५ मे गुजरात पुरातत्व मन्दिर, अहमदाबाद से गुजराती भाषा मे प्राकृत व्याकरण प्रकाशित की, जिसका हिन्दी रूपान्तर माध्वी सुबताजी ने और उसका प्रकाशन १९६८ मे मोतीलाल बनारसीदास ने किया। प्रस्तुत ग्रन्थ मे "सस्कृत, पालि, शौरसेनी, मागधी, पैशाची तथा अपभ्र श के पूरे नियम बताकर सस्कृत के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विशेष परामर्श किया है और वेदो की भाषा, प्राकृत भाषा तथा सस्कृत भाषा, इन तीनो भाषाओ का शब्द समूह कितना अधिक समान है, इस बात को यथास्थान स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। सुनीतिकुमार चाटुा के शब्दो मे "इसे पिशेल के वृहत् प्राकृत व्याकरण का गुटका सस्करण कहा जाए तो अत्युक्ति नही होगी।" इसके बाद डॉ० पी० एल० वैद्य ने A Mannual of Ardhamagadhi Grammar (पूना, १६३४) प्रकाशित की। पुस्तक छोटी ५२ उपयोगी है। इसके पूर्व डा० बनारसीदास जैन ने पजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से १६२३ मे Ardhamagadhi Reader प्रकाशित की थी, जिसमे अर्धमागधी की सामान्य विशेषताओ को स्पष्ट करते हए जनागमो मे से प्राकृत-उद्धरण प्रस्तुत किए गये थे। इसी शृखला मे डा० A M Ghatage की Introduction to Ardhamagadhi कृति १६५१ मे कोल्हापुर (School and College Book-stall) से प्रकाशित हुई। इसमे लेखक ने प्राकृत को सस्कृत से उत्पन्न मानकर अर्धमागधी अथवा जैन महाराष्ट्री की विशेपताओ को तीन भागो में विभाजित किया ध्वनि, रूपिम और वाक्यविज्ञान तथा समास । यहा भाषाविज्ञान का विशेष रूप से आधार लिया गया है । अर्धमागधी का विश्लेषण करते हुए उन्होने भूमिका मे कहा है कि यह भाषा एक जैसी नही रही । प्राचीन और नवीन विकास का सकेत आगमो मे स्पष्टत देखा जा सकता है। उदाहरणत प्रथमा विभक्ति के एकवचन मे अ तथा ए प्रत्यय मिलते हैं। इनमे ओ प्रत्यय प्राचीन रूप है जो गाथाओ मे मिलता है तथा ए प्रत्यय अपेक्षाकृत नवीन रूप है जिसे हम गद्यभाग मे पाते है। प्राकृत, विशेषत अर्धमागधी, भाषाओ के विकासात्मक रूपो
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy