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________________ २५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा पट्टम तथा चौग्वम्भा से प्रकागिन मस्करणों का नो उपयोग किया ही, साथ ही तजोर और मद्राम से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियो का भी आधार लिया गया है। अपनी विस्तृत भूमिका मे डॉ० वैद्य ने हेमचन्द्र और त्रिविक्रम से पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती प्राकृत वैयाकरणो पर विचार किया। यही त्रिविक्रम और हेमचन्द्र के व्याकरण-ग्रन्थो के सूत्रपाठ का तुलनात्मक अध्ययन तथा त्रिविक्रम और लक्ष्मीधर की तुलना की। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने ग्रिविक्रम के शब्दानुशासन का रचनाकाल १२३६ ई० माना। इसके परिशिष्ट मे सूत्रपाठ, मूत्रानुक्रमणिका, छन्द छायापन्न सूत्रपाठ, अपभ्र श पद्यसूची तथा देगशब्दसूची दी गई है। इसके अतिरिक्त जगन्नाय शास्त्री होशिंग ने स० २००७ मे वृत्ति माहित प्राकृत शब्दानुशासन को विद्याविलास, वाराणमी से मुद्रित कराया था। इसी का एक सस्करण १६१२ ई० मे लड्डू ने भी प्रकाशित किया था, जिस पर उनको पी० एच. डी० उपाधि से विभूपित किया गया। प्राकृत शब्दानुशासन के आधार पर सिंहराज (१५ वी शती) ने प्राकृत रूपावतार और लक्ष्मीधर ने पड्भापाचन्द्रिका लिखी। पड्भापाचन्द्रिका का मपादन कमलाश कर प्राणशकर त्रिवेदी ने किया (वाम्वे संस्कृत और प्राकृत सीरिज, १६१६) । इसकी भूमिका मे सपादक ने महाराष्ट्री प्राकृत, गौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रश इन छह प्राकृत बोलियो का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। हेमचन्द्र के अतिरिक्त भामकवि की पडभाषाचन्द्रिका, दुर्गणाचार्य की पड्भाषारूपमालिका तथा पड्भापामजरी, पड्भाषासुबतादर्श और पड्भापाविचार मे भी इन्ही छह वोलियो का विवेचन है। इनके अतिरिक्त अप्पय दीक्षित (१५५३-१६३६ ई०) की प्राकृत मणिदीपिका का सटिप्पण मपादन श्रीनिवास गोपालाचार्य ने (ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पब्लिकेशन्स, युनिवर्सिटी आफ मैमूर, १९५४)तथा रघुनाथ (१८ वी शती) के प्राकृतानन्द का सपादन और प्रकाशन मुनि जिन विजय ने (सिंघी जैन ग्रन्यमाला, वम्बई) किया। इन अन्यो के सपादन और प्रकाशन ने प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन को सुरुचिपूर्ण और सुविधापूर्ण बना दिया। छात्रो और अध्यापको को ये ग्रन्थ सुलभ हो गये। २ स्वतन्त्र प्राकृत व्याकरणात्मक ग्रन्थो का प्रणयन उपयुक्त प्राकृत-व्याकरण शास्त्री के आधार पर बीसवी शती मे आधुनिक भाषाओ मे भारतीय विद्वानो द्वारा प्राकृत व्याकरण ग्रन्थो का प्रणयन प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम ऋषिकेश शास्त्री की प्राकृत व्याकरण का प्रकाशन कलकत्ता से १८८३ मे हुआ। यद्यपि मूलत: वह सस्कृत मे था पर साथ ही उसका अग्रेजी
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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