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________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान . २४५ आर्डरनुम) नाम से प्रकाशित हुआ । क्रमदीश्वर ने इस पर स्वोपज्ञ टीका लिखी और चण्डीदेव शर्मन् ने प्राकृत दीपिका लिखी है । क्रमदीश्वर का समय १२-१३ वी शती मानी जाती है। पुरुषोत्तम के प्राकृत शब्दानुशासन का सर्वप्रथम सम्पादन Nitti Dolce ने नेपाल से प्राप्त एक ही प्रति के आधार पर किया जिसका प्रकाशन १९३८ मे परिस से हुआ। इसका समय १३वी सती से पूर्व माना गया है। Dolci ने पिशल के इस मत का खण्डन किया कि व्याकरणकारो की प्राचीनता तथा नवीनता की पहचान या वर्गीकरण इस सिद्धान्त पर करें कि पुराने व्याकरणो मे प्राकृत के कम भेद गिनाए गए हैं तथा नयो मे उनकी संख्या वढती गई है। वास्तव मे पाया तो यह जाता है कि जितना नया व्याकरणकार है, वह उतनी कम प्राकृत भाषाओ का उल्लेख करता है। पिशल के इस मत को भी उन्होने स्वीकार नहीं किया। वररुचि, महाराष्ट्री छोड, अन्य प्राकृत भाषाओ के बारे मे कम सूत्र देते है । कौवेल और ऑफरेष्ट के भी प्राकृत-अध्ययन का मूल्याकन Dolcr ने किया। उन्होने यह स्पष्ट किया कि प्राकृत सजीविनी स्वतन्न ग्रन्थ नही बल्कि टीका का नाम है । टीकाकार वसन्तराज का समय १४-१५ वी शती माना जा सकता है। पिशल के काल से ही हेमचन्द्राचार्य द्वारा उल्लिखित 'हुग्ग' की पहिचान अभी तक नही हो सकी। Dolci ने हुग के स्थान पर 'सिद्ध' पाठ सही माना है और कहा है कि हेमचन्द्र के व्याकरण के मूल स्रोतो की खोज अभी तक पूर्ण सफल नहीं हुई। यह सही भी है। प्राकृतकल्पतरु के रचयिता रामतर्कवागीश का समय लगभग १७वी शती माना जाता है । लास्सन ने इसका उल्लेख अपने इन्स्टीटयूत्सी ओस मे किया। उसके समूचे भाग को एक साथ प्रकाशित नही किया जा सका । नियरसन ने उसके कुछ भागो को निबन्धो के रूप मे अवश्य प्रस्तुत किया है। बाद मे सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन E Hultzsch ने किया जिसका प्रकाशन रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, Hertford से १९०६ मे हुआ। लकेश्वर की प्राकृत कामधेनु, मार्कण्डेय का प्राकृत सर्वस्व, नरसिंह की प्राकृत २००६प्रदीपिका आदि और भी अन्य प्राकृत व्याकरण हैं पर विदेशी विद्वानो ने उनपर प्राय अपनी लेखनी नही चलाई। __ प्राकृत व्याकरण के पश्चिमी सम्प्रदाय के प्रमुख वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र को कहा जा सकता है। उनका प्राकृत व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन का अष्टम अध्याय है जिसकी सर्वप्रथम स-पाद R Pischel ने दो भागो मे किया जिनका प्रकाशन Halle से १८७७ और १८८० मे हुआ । प्रथम भाग मे मूल ग्रन्थ और शब्द-सूची दी गई है और द्वितीय भाग मे उसका जर्मन अनुवाद, विशद व्याख्या और तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इसमे पिशल ने हेमचन्द्र के
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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