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________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान • २४३ का अध्ययन करने के लिए और भी प्रेरित कर दिया। यहा लेखक ने यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राकृत जैन आगमो की भाषा को अर्धमागधी नाम दिया जाना चाहिए, जैन प्राकृत नही। इसी प्रकार महाराष्ट्री जैन प्राकृत के स्थान पर सौराष्ट्री जैन प्राकृत तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राकत आगम ग्रन्थो की भाषा को शौरसेनी जैन प्राकृत कहा जाना चाहिए। Sten Konow (I R A S 1901) ने भी प्राकृत भाषाओ का भाषाविज्ञान की दृष्टि से अध्ययन किया । T Burrow का Sanskrit Language (London) तथा J Bloch का फ्रेञ्च मे लिखित 'ल' ऑर्दा एरिया (भारतीय आर्यभाषा) आदि जैसे ग्रन्थो का भी यहा उल्लेख किया जा सकता है, जिनमे विद्वानो ने प्राकृत के विभिन्न विकासात्मक सोपानो को स्पष्ट करते हुए भारतीय भाषाओ के विकास मे उनके योगदान की चर्चा की। Alsdorf का Origins of New Indo-Aryan languages लेख भी महत्त्वपूर्ण है। इसी सन्दर्भ मे हम हल्श के Inscriptions of Ashok (Oxford, 1925), दूलर के Ashoka's text and Glossary (कलकत्ता, १९२४), Bloch के Ashoka a la Magadhi (BSOS, VI, 2, 1932) जैसे कार्यों का भी उल्लेख करना चाहेगे, जिनमे शिलालेखो की प्राकृत का विचार किया है। इन विद्वानो ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि प्रस्तर-लेखो पर प्राकृत का बहुत प्रभाव ५डा है और ये विशेषताये केवल साहित्यिक प्राकृत मे ही मिलती हैं। इन प्रस्तरलेखो की भाषा मे कुछ कृत्रिमता दिखाई देती है। फिर भी वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं प्राकृत के विकास को समझने की दृष्टि से।। २ प्राकृत-व्याकरणो का अध्ययन-अनुसन्धान प्राकृत-व्याकरणो को साधारणत: दो सम्प्रदायो मे विभक्त किया गया है पूर्वी और पश्चिमी । पूर्वी सम्प्रदाय का नेतृत्व वररुचि करते हैं और पश्चिमी सम्प्रदाय का हेमचन्द्र । पाश्चात्य विद्वानो ने इन दोनो सम्प्रदायो पर काम किया है। पूर्वी व्याकरण-सम्प्रदाय पर शोध प्रारम्भ करने का श्रेय Cl Lassen को दिया जा सकता है जिन्होने १८३७ मे Bonnae से Institutions linguae Pracritieae नामक ग्रन्य प्रकाशित किया। इसके प्रथम खण्ड में हेमचन्द्र आदि प्राकृत-वैयाकरणो तथा मागधी आदि प्राकृत बोलियो पर विचार किया गया है। दूसरे खण्ड मे वररुचि के प्राकृत प्रकाश के प्रथम चार अध्याय प्राकृत-सस्कृत अनुक्रमणिका के साथ प्रस्तुत किए गए हैं । ग्रन्थ का तृतीय खण्ड मागधी, पैशाची, अपभ्रश आदि प्राकृत बोलियो के विवेचन पर आधारित है। १८३६ मे N Delius ने Radices Pracratcae का वही से प्रकाशन किया। इसमे लेखक ने पररुचि के आठवे अन्याय पर अपना अध्ययन विशेषत केन्द्रित किया।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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