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________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २१७ विष्णुधर्मोत्तर की 'प्राकृतलक्षण' डा० घोप ने 'प्राकृतकल्पतर' के परिशिष्ट मे प्रकाशित किया है । डा० पिशल ने अपने ग्रन्थ मे 'प्राकृतदीपिका' (बडीदेवशर्मन्)", 'षड्भाषासुबन्तरूपादर्श' (नागोवा), 'प्राकृतकौमुदी,' 'प्राकृतसाहित्यरत्नाकर', भाषार्णव (चन्द्रशेखर) आदि प्राकृत व्याकरण ग्रन्थो का मात्र उल्लेख किया है। नरसिंहकृत 'प्राकृतशब्दप्रदीपिका' तथा ऋपिकेश शास्त्री के 'प्राकृतकल्पलतिका' नामक प्राकृत व्याकरणो का भी पता चला है। इन सबके प्रकाश मे आने पर आधुनिक युग के प्राकृत व्याकरणशास्त्र की प्रवृत्तियो का ठीक-ठीक पता चल सकेगा। वैसे आधुनिक भारतीय भाषाओ के विकास के उपरान्त प्राकृत-अपभ्र श व्याकरणो के मूल ग्रन्थो के प्रणयन मे कमी आना स्वाभाविक है। इस युग मे तुलनात्मक ग्रन्थ अवश्य इस विषय के लिखे गये हैं। प्रमुख प्राकृत भाषाओ का स्वरूप प्राकृत भाषा के याकरण) एव उनके ग्रथो के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्राय सी वैयाकरणो ने महाराष्ट्री को सामान्य प्राकृत के नाम से कहकर उसका स्वरूप विवेचित किया है एवं उससे भिन्न लक्षण वाली अन्य शीर सेनी, मागवी, पैशाची, अपभ्रश आदि का बाद मे अनुशासन किया है। यद्यपि चड, पररुचि एव हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणो मे 'महाराष्ट्री' प्राकृत का कोई उल्लेख नही है। किन्तु काव्य की भाषा प्राकृत महाराष्ट्री ही मानी जाती थी। अत उसी को सामान्य प्राकृत स्वीकार किया है ।७२ वररुचि के १०वे एव ११वे परिच्छेदो मे शौरसेनी की प्रधानता है। किन्तु १२वे परिच्छेद मे 'महाराष्ट्री' शब्द का प्रयोग कर उसे सामान्य प्राकृत कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वररुचि के इस १२वे परिच्छेद की रचना के समय महाराष्ट्री शौरसेनी से भिन्न प्राकृत भाषा के रूप मे प्रतिष्ठित हो चुकी थी। बाद के वैयाकरणो ने उसे ही आधार मानकर अपने ग्रन्थ लिखे हैं । अत यहा महाराष्ट्री या सामान्य प्राकृत के कुछ प्रमुख नियमों का उल्लेख कर बाद मे अन्य प्राकृतो के स्वरूप को स्पट किया जावेगा। सामान्य प्राकृत (महाराष्ट्री) प्राचीन प्राकृत वैयाकरण चड ने अपने व्याकरण मे जिन नियमो की मात्र सूचना दी थी पररूचि ने उन नियमो को स्थिर और समृद्ध किया है। हेमचन्द्र ने सूक्ष्मता से साहित्य और लोक मे प्रचलित रूपो के आधार पर अपने नियम प्रस्तुत किये हैं। वाद के वैयाकरणो ने प्राकृत के इन सामान्य नियमो को अपने ग्रन्यो द्वारा प्रचारित किया है। १ भारतीय आर्य भाषा के ऋ, ऋ, लु एव ल का सर्वथा अभाव ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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