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________________ २०६ सम्पूत-प्राकृत व्याकरण और कोश की पर हो । सरकत जण शब्द का अगमय भी है और दाव भीमचन्द्र ने उमर अर्थ मे छणो (क्षण ) और समय अयं में राणो (जण ) + ५ निष्टि हैं। उसी तरह हेम ने अब्धयो को भी विस्तृत मूनी पाद मेवी है। तृतीयपाद में १८२ कार. विनियो, जियाना बाधि सम्बन्धी नियमो का कथन किया गया है। शाम्प, निया-५ और प्रत्यको का वर्णन वि५ ' ने ध्यातव्य है । वैरी प्रावतप्रकाश ममान हो सका विवेचन हम ने किया है 4.1 का व्यय था पर अ-प्रमाणाना है। मप्रति व्याकरण का चयं पाद विशेष महत्व है। इसके ४४८ मूवी मे गारमेनी, मागधी, पैशात्री, वनिका पंशाची ओर अपने प्रानो का शब्दानुशासन ग्रन्या ने किया है। जग पाद म मात्वादे को प्रमुखता है ।मत चातुओ पर देशी अपभ्रश धानुओ आदे॥ किया है । यथा - म०-T. प्रा०-ह को वोल्ल, चव, जप आदि आदेगा। मागवी, भोरमेनी एन पैशाची का अनुमान तो पानीन या.जो ने भी सक्षेप मे किया था। हैम ने इनको विस्तार में गमलाया है। किन्तु इनके माय ही चूलिका पैशाची की विशेषताए भी स्पष्ट की है। ग पाद के ३२६ सूत्र मे ४४८ भून तक उन्होंने अपभ्र श व्याकरण पर पहली बार प्रकाश डाला है ।"दाहरणों के लिए जो अपभ्रश के दोहे दिये है, वे अप न श नाहित्य की अमूल्य निधि है । आचार्य हेम के समय तक प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया बा । इस भाषा का विशाल साहित्य भी था । अपन श के भी विभिन्न १५ प्रचलित थे। अत हेमचन्द्र ने प्राचीन वयाकरणो के ग्रन्यो का उपयोग करते हुए भी अपने व्याकरण मे बहुत सी वात नयी और विशिष्ट शैली में प्रस्तुत की है। हेम एव अन्य प्राकृत वैयाकरण . ___ आचार्य हेमचन्द्र के पूर्व कई प्राकृत वैयाकरण हो चुके थे। हेमचन्द्र ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने प्राचीन ग्रन्थो का पर्याप्त उपयोग किया है। यद्यपि किसी का नाम नहीं लिया है। कश्चित, केचित्, अन्य आदि शब्दो द्वारा इसकी सूचना दी है। प्राकृत व्याकरण के अनुशीलन से यह स्प८८ हो जाता है कि चड एव वररुचि का उन पर पर्याप्त प्रभाव है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि हेमचन्द्र मे कोई मौलिकता नही है । डा० डोल्पी नित्ति के इस कथन को समर्थन नहीं दिया जा सकता है कि हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण की पूर्णता और प्रौढता प्राप्त नही की है या उसमे कोई विशे५ प्रतिभा नही है ।३८ वस्तुत हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण मे उस समय तक प्रचलित सभी अनुशासनो को सम्मिलित किया है तथा जहाँ नये नियमो व उदाहरणो की आवश्यकता थी उनको अपने ढंग से प्रस्तुत किया है । चइ के प्राकृत लक्षण सूत्र
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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