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________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०५ सिद्धहमशदानुशासन प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचन्द्र के सिद्धहमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृत वैयाकरणो की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाए विकसित हुई है । पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र हैं (सन् १०८८ से ११७२) ।३३ इन्होने विभिन्न विषयो पर बनेक ग्रन्थ लिखे है। इनकी विद्वत्ता की छा५ इनके इस व्याकरण ग्रन्थ पर भी है। इस व्याकरण का अनेक स्थानो से प्रकाशन हुआ है । डा० पिशेल द्वारा सम्पादित होकर यह अन्य सन् १८७७-८० के बीच दो बार प्रकाशित हुआ है । डा० पी० एल० वैद्य द्वारा सम्पादित होकर १६३६ मे यह प्राकृत व्याकरण छपा तथा सशोधित होकर १६५८ मे इसका पुन प्रकाशन हुआ। इसके गुजराती, अग्रेजी और हिन्दी अनुवाद भी निकल चुके हैं । व्यावर से प्रकाशित हिन्दी सस्करण मे अनेक परिशिष्ट सलग्न है अत उसकी विशेष उपयोगिता सिद्ध होती है। हेमचन्द्र के अपने इस व्याकरण ग्रन्थ मे आठ अध्याय हैं । प्रथम सात अध्यायो मे उन्होने सस्कृत व्याकरण का अनुशासन किया है, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र मे अलग महता है।३४ आठवे अध्याय मे प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी सक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है। आठवें अध्याय के प्रथम पाद मे २७१ सून है । इनमे सधि, व्यजनान्तशब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर-व्यत्यय और व्यजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है । इस पाद का प्रथम सून प्राकृत शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण सस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र द्वारा हेमचन्द्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनो को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र ने न केवल साहित्यिक प्राकृतो को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपो को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है । इस पाद के तीसरे सून आर्षम् ८।१।३ द्वारा ग्रन्थकार ने आर्षप्राकृत और सामान्य प्राकृत मे भेद स्पष्ट किया है। इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन करते है। जिस बात को प्राचीन वैयाकरण चद्र, वररुचि आदि ने सक्षेप मे कह दिया था, हेमचन्द्र ने उसे न केवल विस्तार से कहा है, अपितु अनेक नये उदाहरण भी दिये है। इस तरह प्राकृत भाषा के विभिन्न स्वरूपो का सागोपाग अनुशासन हैमव्याकरण मे हो सका है।३५ द्वितीयपाद के २१८ सूत्रो मे मयुक्त व्यजनो के परिवर्तन, समीकरण, स्वर भक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययो का निरूपण है। यह प्रकरण आधुनिक भापाविज्ञान की दृष्टि मे बहुत उपयोगी है । हेमचन्द्र ने नकृत के कई द्वयर्थ वाले शब्दो को प्राकृत मे अलग-अलग किया है, ताकि भ्रान्तिया न
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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