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________________ १८४ . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परपरा बनाया। इस प्रकार सज्ञा के बिना सीधे आदेश विधान की परम्परा को भिक्षुशब्दानुशासन ने अपनाया और उसे ऐसा परिष्कृत रूप दिया, जो अव्याप्ति आदि दोपो से विनिर्मुक्त है। उपर्युक्त वातो के अतिरिक्त भिक्षुशब्दानुशासन मे लगभग एक सौ के करीब ऐसे स्थल हैं, जिनकी तुलना पाणिनिशब्दानुशासन से करने पर दोनो की अपनी २ विशेषता स्पष्ट परिलक्षित होती है। उनमे से कुछ उदाहरण नीचे प्रस्तुत है । । । १ । एकदितिमात्रा हस्वदीर्थ लुता ।१।११६ के उदाहरण मे दीर्घ ल का पा० है । इससे दीर्थ ल की सत्ता भिक्षुशब्दानुशासन मे स्वीकृत है। ___ भट्टोजिदीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी मे "लुवर्णस्थ द्वादश तस्य दीर्धाभावात्" यह पा० देखकर समझा जाता है कि पाणिनि परम्परा मे दीर्घ लकार नहीं है। किन्तु वात कुछ और ही है । "लुतिल वा" इस पातिक से विधेय जो ल होता है वहाद्विमालिक अर्थात् दीर्घ होता है और इसका प्रयत्न विवृत न होकर ईपरस्पृष्ट होता है। इसीलिये ऐसा नहीं समझना चाहिये कि पाणिनि परम्परा मे दीर्थ लकार नहीं होता। २ऋणे प्रवसन क बलदशावत्सरवत्सतरस्यार् । १।२।१४ (भिक्षु०) प्रवत्सतर कम्वलवसनाणदशानामृणे (वै० सि० कौमुदी) भिक्षुशब्दानुशासन का उपर्युक्त सूत्र तथा सिद्धान्तकौमुदी का वार्तिक दोनो के द्वारा कार्य एक ही किया जाता है पर भिक्षुशब्दानुशासन आर् का विधान करता है जब कि वातिक के द्वारा वृद्धि करके आर् किया जाता है । यहाँ पाणिनि की अपेक्षा वत्सर शब्द भिक्षुशब्दानुशासन मे अधिक है। इससे "वत्सराणम्" की सिद्धि होगी। ३ नेमोल्प प्रथम चरमतयडयडर्घकतिपयाना वा ।।१।४।२० (भिक्षु०) प्रथम चरमतयाल्पाकतिपयने भाश्च ॥११११३३ (पाणिनि) Fi भिक्षु शब्दानुशासन 'सून पठित शब्दो के आगे जश् विभक्ति को इश् आदेश विकल्प से करता है और पाणिनि शब्दानुशासन जश् विभक्ति के ५२ मे रहने पर सर्वनाम सज्ञा विकल्प से करता है, जिससे जश् को शी विकल्प से होता है । वात एक ही है भेद केवल प्रक्रिया का है। 11 पाणिनि सून की अपेक्षा भिक्षुशब्दानुशासन मे ."अय" पा० अधिक है। इसलियनिय शब्द का रूप प्रथमा के बहुवचन मे नये, नया ' भिक्षुशब्दानुशासन के द्वारा बनेगा और पाणिनि के अनुसार केवल 'नया' वनेगा। किन्तु पाणिनि परम्परा के विवेचकोका कहना है कि यहाँ पर "जय" शब्द मे मूल प्रत्यय तय है जिसे निभ्या तयस्यायज् वा" सूत्र से अयच् आदेश, कर दिया गया है। अत स्थानिवद्भाव के द्वारा यहाँ तय५ बुद्धि करके वैकल्पिक सर्वनाम सज्ञा के द्वारा "जय जया प्रयोग वनाने मे कोई वाधा नही है। ::.., - :
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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