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________________ १८२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा किया है। उसके वाद "झरोझरि सवर्णे" सूत्र से थकार का लोप तथा श्वरि च " सूत्र से दकार को तकार करके "उत्थानम् " प्रयोग की सिद्धि की गई है । भिक्षुशब्दानुशासन इस प्रयोग की सिद्धि के लिये इतनी लम्बी प्रक्रिया की जगह सरल प्रक्रिया को अपनाता है । उसका सूत्र है 'उद स्थास्तम्भो स ।" उसके द्वारा उद् शब्द के आगे रहने वाले स्था और स्तम्भ के सकार का लोप कर दिया जाता है । फलस्वरूप सकार का पूर्वसवर्ण तथा थकार का लोप जैसी प्रक्रिया नही करनी पडती । यह एक लाघव है । भिक्षुशब्दानुशासन के पूर्ववर्ती जैनेन्द्र ने तो उत्थानम् की सिद्धि के लिये पाणिनि की सरणि को ही अपनाया । इनका सूत्र "स्यास्तम्भो पूर्वस्योद " ५।४।१३५ उद् से पर मे रहने वाले स्था और स्तम्भ को पूर्व का रूप करता है | इससे स्पष्ट है कि ये पाणिनि की परम्परा का अनुसरण कर रहे है । शाकटायन यहाँ पाणिनि से भिन्न सरणि को अपनाते है । इन्होंने “उद स्वास्तम्भ १|१|१३४ सूत्र बनाया और इसके द्वारा स्था के सकार का लोप कर दिया गया । इतना अवश्य है कि सकार के लोप के लिये "जर्" प्रत्याहार का अवलम्वन किया गया । अर्थात् उद् से पर मे रहने वाले जर् ા જોષ हो जाता है यदि उसके आगे भी जर रहे तो । इस प्रकार सकार का लोप करके શાČાયન ને પ્રયિા તાધવ ળા પ્રવર્ધન યિા । મિક્ષુધાવ્વાનુશાસને યક્ષ્ાઁ શાદાયન से प्रभावित है । किन्तु शाकटायन जहाँ जर् प्रत्याहार के द्वारा सकार लोप विधान करते है, वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन "उद स्थास्तम्भो स सूत्र के द्वारा सीधे सकार का लोप विधान कर सरलीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढाता है । 1 31 पाणिनि परम्परा मे जो रूप पूर्वरूप या पररूप करके बनाये जाते है, भिक्षुशब्दानुशासन वहाँ लोप करके उसको बनाता है । उदाहरण के लिए 33 १ राम् +अम् "अमिपूर्व " सूत्रसे पूर्वरूप करके रामम् बना (पाणिनि) । राम् [ अम् = "समानादम सूत अम् के अकार का लोप करके रामम् वना, (भिक्षुशब्दानु० ) । २ प्र + एजते = "एडि पररूपम् " सूत्र से पररूप करके प्रेजते रूप बनता है (41 FUIFFT) 1 प्र + एजते=एदेतोरुपसर्गस्थलीप " सूत्र से उपसर्ग के अकार का लोप करके प्रेजते रूप की सिद्धि होती है ( भिक्षु० ) । ३. शक | अन्धु =शकन्ध्वादिपु पररूप वाच्यम् इस वार्तिक से ककारोत्तरवर्ती अकार का पररूप करके "शकन्धु" रूप बनता है (पाणिनि) । शक + अन्धु = "शकादीना टेरन्धादिषु" इस सूत्र से टिलोप (अकारलोप) करके शकन्धु वना । ( भिक्षु० ) । गुण और १२ वृद्धि सज्ञाए भिक्षुशब्दानुशासन मे नही है। साथ ही अकार के आगे जहां ऋ और लृ रहता है वहाँ क्रमश गुण रूप मे अर् और अल् तथा वृद्धिरूप मे લાર્ ઔર્ બાત્ હોતા હૈ ખૈલે
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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