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________________ १४० मत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि तथा उसकी स्वोपनवृत्ति बनानार मस्त वयाकरणों का महान् उपकार किया है। उन्होने जिन मतो को अयुक्त माना है उनमें प्रवल प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं और अपने निजी अभिमत को भी तर्फसम्मत होने के कारण ही दर्शाया है। जिन अनेक आचार्यों के मतानुसार गणो तया गणशब्दो का समादर किया है उनका नामोल्लेख करने में सकोच नहीं किया गया है, जिसमें किसी मतविशेष का समादर करने या उपेक्षा करने के उद्देश्य से ग्रन्य की रचना नही कही जा सकती है। गणरत्नमहोदधि के प्रारम्भ मे जिन आचार्यों के प्रति अपनी विशेप श्रद्धा व्यक्त की गई है वे आचार्य विविध सम्प्रदायो के है, जिससे यह ग्रन्थ किसी संप्रदाय विशेष का भी अनुकरण करने वाला नहीं कहा जा सकता है। किरण r m " (३) पाणिनीय आदि व्याकरणों पर जैनाचार्यो की टीकाएँ क्रम स टीकाएँ १ अनिट्कारिकावचूरि मुनि क्षमामाणिक्य सिद्धान्त चन्द्रिका (२) २ अनिट्कारिकास्वीपज्ञवृत्ति हपंकीतिसूरि सिद्धान्तचन्द्रिका (३) ३ कलापदीपिका गौतम पण्डित कातन्त्र (१) ४ कातन्तदीपक મુનિહર્ષ कातन (२) ५ कान्त्रिपलिकोद्योत त्रिविक्रम " (१०) ६ कातन्तभूपणम् धर्मधोपसूरि (१४) ७ कातन्त्रमन्तप्रकाश कर्मधर ८ कातन्त्र रूपमाला मुनीश्वर भावसेन , (४) ६ कान्तिवाक्यविस्तर પડિત રામ ॥ (१५) १० कातन्त्र विभ्रमटीका जिनप्रभसूर ११ कान्तिविभ्रमावणि साधुचारितसिंह १२. कातन्त्र विभ्रमावणि મોપોનાવાર્ય , (६) १३ कातन्त्रविस्तर વર્ધમાન , (७) १४ कातन्त्रवृत्तिपलिका તિનો વનવાસ " (८) १५ कातन्त्रवृत्तिपलिका सोमकीति , (१७) ૨૬ તિન્નવૃત્તિપન્ન પ્રવીપ પુષ્મિતે વેતન " (8) १७ कातन्नोत्तरम् विजयानन्द " (११) १८ कालापप्रक्रिया ભાવાર્ય વનવા , (१२) १६ क्रियाकलाप નિવેવસૂરિ पाणिनीय (४) २० क्रियाकलाप નિનવેવસૂરિ कातन्त्र (१६) २१ क्रियाकलाप विद्यानन्द (विजयानन्द) , (१८) Sm
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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