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________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन १३५ यह स्प८८ स्वीकार किया है कि अनेक शब्दशास्त्री तथा महाकाव्यो का परिशीलन करके ही प्रकृत ग्रन्थ की रचना मे प्रवृत्त हो रहा हूँ विदित्वा शब्दशास्त्राणि प्रयोगानुपलक्ष्य च। स्वशिष्यप्रार्थिता कुर्मो गणरत्नमहोदधिम् ।।३।। इससे यही कहा जा सकता है कि उन्होंने किसी एक स्वरचित या शाकटायनादिप्रणीत व्याकरण के अनुसार प्रकृत ग्रन्थ की रचना नही की थी। इस विषय की सम्पुष्टि मङ्गलाचरण के श्लोक २ से भी की जा सकती है, जिसमे उन्होने पाणिनि, शाकटायन, चन्द्रगामिप्रभृति अनेक शाब्दिक आचार्यो की जो सुप्-तिड लक्षण दो प्रकार के पद मानते है, स्तुति की है । यदि स्वरचित व्याकरण के अनुसार गणपाठ करना अभीष्ट होता तो स्वशिष्यप्रार्थना को ग्रन्थ रचना मे हेतु बताना सड्गत नही होता। क्योकि ग्रन्यकार को स्वयं ही अपने व्याकरण की सार्थकता के लिए गणपाठ करना आवश्यक हो जाता। इसी प्रकार यदि शाकटायन व्याकरण ही इसका आधार होता तो पाणिनि, चन्द्रगोमि, भर्तृहरि, वामन आदि आचार्यों की स्तुति का कोई महत्व नहीं होता। इस विषय पर सपादक जुलियस एकलिड्ग ने भी कोई प्रकाश नहीं डाला है, केवल हेमचन्द्र के कुछ गणो से साम्य की चर्चा अवश्य की है । इसके लिए कुछ और भी प्रमाण हो सकते है जिनकी चर्चा गणरत्नमहोदधि की स्वोपज्ञवृत्ति के परिचय मे की जाएगी। यहाँ यह भी ध्यान रखना पाहिए कि पाणिनीय और शाकटायन व्याकरण मे जो गण या गणपठित शब्द है उनसे गणरत्नमहोदधि के गणनाम, उनकी सख्या तथा गणपठित शब्दो मे अनेकत्र अन्तर दृष्ट है । गणरत्नमहोदधि के गणो की कुल संख्या २२१ है, जबकि पाणिनीय गणपा० मे २६१ गण देखे जाते है । इसके विषयो की सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है अध्याय १ 'चादि' प्रभृति नाम गण। अध्याय २ 'अर्धादि' प्रभृति समासप्रक्रिया सम्बन्धी । अध्याय ३ तद्धितप्रक्रियान्तर्गत स्वायिक-अपत्यप्रत्ययसम्बन्धी गण। अध्याय ४. तद्धितान्तर्गत समूह-विकार-अवयव-वेत्ति-अधीते अर्थ सम्बन्धी गण। अध्याय ५ तद्धितान्तर्गत शेष-साध्वर्थ-भव-आख्यान-आगत-अर्थ-कृत-अभिजन पाक-३८मर्थविहित प्रत्ययसम्बन्धी गण।। ___ अध्याय ६ करोति-आहेत-गच्छति-प्राप्त-प्रभावित कार्यम्-दीयते-प्रयोजनचरति--उत्पात--सयोग--हरति-वहति-आवहति--पृच्छति-गच्छति-आह-तेन चरतिजीवति-हरति-निवृत्त-वसति-धर्ना-प्रहरण-शील-पण्यलक्षणार्थ-विहितप्रत्ययसम्बन्धी गण।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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