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________________ १३४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ८ सुबोधिनी ___खरतरगच्छीय रूपचन्द्र ने भी १८ वी शताब्दी मे इसका प्रायन किया था। ३४६४ श्लोक इसका परिमाण बताया गया है। बीकानेर के किसी भण्डार मे इसकी प्रतियां है। गणपाठ पर आधारित यद्यपि प्रत्येक व्याकरण का एक निश्चित गणपा० होता है, जिस पर अन्यान्य ___ आचार्य विद्वानोकोटीकाएं भी प्राप्त होती हैं । तथापि कुछ ऐसे भी अन्य हैं जिनका किसी व्याकरणविप से ही सम्बन्ध नहीं होता। किन्तु अनेक व्याकरणो के आवार पर उनकी रचना होती है। संस्कृत व्याकरण मे एक ही आचार्य द्वारा लिखे गए गणपाल सम्बन्धी दो अन्य उक्त श्रेणी मे माने जा सकते है, अत उनका विशेष परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जाएगा। १ गणरत्नमहोदधि श्रीगोविन्दसूरि के शिष्य श्रीवर्धमान ने गणरत्नमहोदधि नामक अन्य की रचना वि० म० ११९७ मे की थी। यह ग्रन्थ मा० अध्यायो मे विभक्त है और इसमे ४६० श्लोक देखे जाते हैं । ग्रन्थ के अन्त मे स्वय ग्रन्यकार ने रचनाकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख किया है ફિન્નિત્ ર્વાન્વિત્ બૂિ રતિ પદ્યાનુસારતોમામિ ! सुन्दरमसुन्दर वा तल्लक्ष्य सहृदयरेव ॥१॥ सप्तनवत्यधिवेकादशसु शतेवतीतषु । વર્ષાબા વિમતો મળરત્નમવિહિત રા किम व्याकरण के अनुसार इसमे गणपा० प्रस्तुत किया गया है इस विषय ५. विद्वानों द्वारा परस्पर कुछ भिन्न विचार किए गए है। युधिष्ठिर मीमासक ने अपने 'मतव्याकरण शास्त्र का इतिहास' (भाग १, पृ० ५६३) अन्य मे वर्धमान के स्वरचित व्याकरण की सम्भावना की है, अन तदनुसार ही गणरत्नमहोदधि में दो का पा० होना चाहिए । प० अम्बालाल प्रेम शाह ने 'जनसाहित्य का वृहद् इनिहाम' (भाग ५, पृ० २०-२१) मे शाकटायन व्याकरण के अनुसार इसमे गण ब्दो का पा० माना है । परन्तु गणरत्नमहोदधि का अनुशीलन करने पर ये दोनो विचार प्रामाणिक प्रतीत नहीं होते। नियों की प्रार्थना पूर्ण करने के लिए वर्धमान ने इस अन्य की रचना की है। उन्होंने ग्रन्थारम्भ में इस हेतु का उल्लेख करते हुए
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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