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________________ १३२ . सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ____किमी एक ही अर्थ की प्रामाणिकता के लिए अनेक कोशवचनो को उद्धृत किया है । जैसे १ भरतीति वभ्र . । 'वभ्र वैश्वानरे शूलपाणी च ॥णध्वजे । विशालेनकुले पुसि पिङ्गले त्वभिधेयवत्' इति मेदिनी । बभ्रुमन्वन्तरे विष्णौ वभ्र नकुलपिड गली' इति धरणि (उत्तरार्ध २७.१७) । २ मृग यातीति मृगयु । 'मृगयु पुसि गोमायौ व्याधे च परमेष्ठिनि' इति मेदिनी । 'मृगयुर्ब्रह्माणि ख्यातो गोमायुयाधयोरपि' इति विश्व (उत्तरार्ध २७१३२)। ३ नभ । 'नभो व्योम्नि मेधे श्रावणे च पतद्गृहे। ध्राणे मृणालमूने च वासु च नमा स्मृत' इति विश्व । 'नभ ख श्रावणो नभ' इत्यमर । नभ तु नभसा सार्धम् इति द्विरूपकोश (उत्तरार्ध २७।३१४)। यद्यपि वृत्तिकार ने व्याख्यात विषय के प्रमाण मे रामायण, श्रीमद्भागवत, भारत, भाष्य, हरिटीका, भट्टि, सिद्धान्तकौमुदी आदि अनेक ग्रन्थो, भाष्यकार, कयट, हरदत्त, यास्क, माधव, कालिदास, श्रीहर्ष, वोपदेव प्रभृति अनेक आचार्यो का उल्लेख किया है। इनमे भी अजयकोश, मसारावर्त, विक्रमादित्यकोश तया वोपालित प्रभृति कुछ नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है तथापि किन्ही शब्दो के अकारान्तत्व आदि मे प्रमाण के लिए पुराणवचन भी उद्धृत किए गए हैं । यथा १ थिन शिर कि । श्रिन सेवायामस्मादसु स्यात् स च कित् धातो गिरादेशश्च । शिर । 'उत्तमाइगं शिर शीपम्' इत्यमर । प्रत्यये तु 'शिर' इत्यदन्तोऽपि । गिरोवाची शिरोऽदन्ती रजोवाची रजस्तथा' इति कोशान्तरम् । 'पिण्ड दद्याद् गयाशिर' इति वायुपुराणे। कुण्डलोद्धृष्टगण्डाना कुमाराणा तर स्विनाम् । निचकत शिरान् द्रौणिनलिभ्य इव पकजान् ।। इति महाभारते (उत्तरार्ध २७।३०५)। इस प्रकार यह वृत्ति सरल, प्रमाणयुक्त तथा पूर्ण है सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति कृदन्ते कृतवानृजुम् । पतलिमतानुसारिणी सिद्धान्तचन्द्रिका' के विपयो का स्पष्टीकरण भी पतजलि के ही मतानुसार करना सगत प्रतीत होता है, वृत्तिकार ने इसका पूर्ण व्यान रखा है, जिसमें यह कहा जा सकता है कि सुबोधिनी' टीका का मुख्य आधारअन्य पतजलि का महामान्य है। यद्यपि ग्रन्यकार ने कही इस प्रकार की कोई प्रतिना तो नहीं की है परन्तु ग्रन्थ के परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है । निम्नाकित कुछ वेचन द्रष्टव्य हैं १ प्रश्न । प्रच्छेतु सम्प्रमारण न भायेज्नु क्तत्वात् (पूर्वि ५७) २ दम्य म । (इमम्, इमो, इमान्) त्यदायत्वे मत्ले औत्व च इमो । त्यदादे.
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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