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________________ ११० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (२) अवागरीध्वम्, (३) अवागलिध्वम्, (४) अवागलीध्वम्, (५) अवागरित्वम्, (६) अवागरीढ्वम्, (७) अवागलिवम्, (८) अवागलीदवम्, (६) अवागारिध्वम्, (१०) अवागारीध्वम्, (११) अवागालिध्वम्, (१२) अवागालीध्वम् तया (१३) अवागीदवम् ये १३ (५ दिखाए गए है । ग्रन्थान्तरो मे इसके १०४ ६५ भी वताए जाते हैं। ___इस प्रकार स्याद्यन्तप्रतिरूपक त्यादि, बहुवचनप्रतिरूपक एक वचन, त्यादि के विपरीत रूप, विभक्तिव्यत्यय के रूप, स्याचन्त की तरह प्रतीत होने वाले त्याचन्त रूप, अप्रसिद्ध त्याचन्त तया दुर्लक्ष्य यन्त शब्दो का पाण्डित्यपूर्ण निर्देश किया गया। है। उदाहरणार्य वहुवचनप्रतिस्पक एकवचन के शब्दो का निर्देश इस प्रकार किया गया है एतेपा कयमेकत्व वनानि ब्राह्मण रमी। वृक्षा पचन्ति येषा यान् वायुभ्य पार्थिवा सुरा ||८|| पुराणि वणिमठान्यमीना धनानि सर्वाणि विलान्यपाच ॥१०॥ कातन्त्रविभ्रम की प्राप्त टीकाओ मे दो हस्तलिखित हैं तथा एक मुद्रित है। मुद्रित टीका चारितसिंहकृत 'अवचूणि' नामक है। जिसका परिचय इस प्रकार वि० स० १६२५ मे साधु चारितसिंह ने यह टीका लिखी है। इन्होने अपने को मतिभद्रगणि का शिष्य बताया है । टीका के नाम तथा उसके रचनाकाल आदि का परिचय इस प्रकार दिया है वाणाश्विषडिन्दु (१६२५) मिति सव्वति धवलकपुरवर समहे । श्रीखरतगणपुष्करसुदिवापुष्टप्रकाराणाम् ।।१।। શ્રીનિનમાણિજ્યાધિસૂરીલા સનસાર્વભૌમાનામ્ पट्टे वरे विजयिषु श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिराज्येषु ॥२॥ गीति । वाचकमतिभद्रगणे शिष्यस्तदुपास्त्यवाप्तपरमार्थ । चारितसिंहसाधुर्व्यदधादवचूणिमिह सुगमाम् ।।३।। उन्होने अपनी उदारता का परिचय देते हुए यह भी कहा है कि मैंने इन प्रश्नोत्तरी की व्याख्या मे यदि कुछ अनृत लिखा हो तो उसे अपने तथा दूसरो के उपकारार्थ विद्वान् स्वयं सशोधित कर ले । यह व्याख्या १९२७ ई० मे इन्दौर से प्रकाशित भी हो चुकी है। इसमें सारस्वत व्याकरण के सूत्रो का उपयोग किया । गया है लिखामि सारस्वतसूक्युक्त्या। ____ ग्रन्यरचना का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि कातन्त्र विभ्रम मे दशित प्रयोग अत्यन्त दुय है, उनके विषय में श्रेष्ठ वैयाकरण भी जडवत् हो जाते हैं, अत अपने तथा दूसरो के जानवर्धन-हेतु इस टीका को लिखने का सफल प्रयास किया जा रहा है
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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