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________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०६ ग्रन्थ के अन्त मे उन्होने अपने वचनो को उन विद्वानो के गर्वकुहर के लिए वनवत् कहा है जो अपने बुद्धिवंभव के गर्व से उद्धृत होकर स्पर्धा करने का साहस करते है । यह वचन अभी अनुसन्धान द्वारा परीक्षणीय है। अभी तक इसके दो सस्करण प्राप्त हैं १ निर्णयसागर यन्त्र, वम्बई । स० १९५२ । २ वीर पुस्तक भण्डार, वीर प्रेस, जयपुर । वीरनिवणि सवत् २४८१ । दोनो सस्करणो मे प्राय साम्य ही देखा जाता है। ५ कातन्त्रविभ्रमावणि ____व्याकरण के लोकव्यवहाराधीन होने से काव्यशास्त्र आदि मे प्रयुक्त कुछ सूत्रो की सिद्धि बताने के उद्देश्य से किसी आचार्य ने कुछ सूत्र बनाए थे। जिस ग्रन्थ को 'कातन्त्र विभ्रम' नाम दिया गया था, परन्तु वे सूत्र आज उपलब्ध नहीं है। उन सूत्रो का गौरव और अप्रसिद्धि टीकाकार गोपालाचार्य के एक वचन से ज्ञात होती है कातन्त्र सूत्रविसर किल साम्प्रत यद् । नीतिप्रसिद्ध इह चातिखरी गरीयान् ।। प्रकृत ग्रन्थ के रचयिता चारित्रसिंह के पचनानुसार ऐसा प्रतीत होता है कि कातन्तविभ्रम-सूत्रो पर सर्वप्रथम क्षेमेन्द्र ने व्याख्या थी। क्षेमेन्द्रकृत व्याख्या की टीका मण्डन नामक किसी विद्वान् ने की थी। सम्प्रति ये दोनो टीकाएँ प्राप्त नही होती हैं। कातन्त्र सम्प्रदाय के किसी विद्वान् ने विभ्रमसूत्र तथा कातन्तशब्दानुशासन के सूती से सिद्ध किए जा सकने वाले १५२ शब्दो को २१ श्लोको मे निबद्ध किया है। इन शब्दो के साधन की प्रक्रिया प्रश्नोत्तर के रूप मे दशित हुई है। इनके अतिरिक्त ५४ शब्दो की योजना १० श्लोको द्वारा वाद में की गई है। श्लोकनिदिष्ट शब्दो की अवरि नामक व्याख्या के कर्ता का परिचय प्राप्त नहीं होता। मुद्रित कातन्त्रविभ्रम के प्रारम्भिक लेख 'कातन्त्र विभ्रम सूत्र सवृत्तिक लिख्यते' के अनुसार श्लोको को भी सूत्र माना जा सकता है । अवचूरिकार ने प्रसङ्गत दो अन्य लोको की योजना इसमे की थी इसका उल्लेख चारितसिंहकृत टीका मे प्राप्त होता है। प्राप्त टीकाओ के परिचय से पूर्व श्लोकबद्ध कातन्त्र विभ्रम का सक्षिप्त विषयपरिचय दिया जा रहा है प्रारम्भ मे ही प्रश्न किया गया है कि परस्पर विरुद्ध किस धातु के १३ रूप एकही प्रत्यय होने पर निष्पन्न होते हैं । व्याख्याकारो ने 'अव' पूर्वक 'ग' धातु से अद्यतनी (लुइ) के मध्यमपुरु५ बहुवचन मे 'ध्वम्' प्रत्यय करने पर (१) अवागरिध्वम्,
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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