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________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०७ या प्रौढाऽपि नव समागमरस भाव समातन्वती, श्लिष्टा गाढमुर स्थलेन हरिणा लक्ष्मी श्रिये साऽस्तु व ॥१॥ त्रिलोचनख्यातमभिन्नदुर्ग सार्ध नमस्कृत्य विविक्तविद्यम् । कातन्त्रमन्तार्यविनिश्चयार्थमय प्रयत्न क्रियते शिशूनाम् ।। २ ।। दुर्गवमुन्नीय सपनिकाया वृत्तेविवेके विजय प्रवृत्त । विवेचयस्तवचनानि वामी स्वय पुनर्दुर्गतमो बभूव ।। ३ ।। ततस्तता युक्तिभिरुक्तिमुक्ता विविक्तपङ्क्ति क्वचिदप्यमुख्याम् । सयोजयिष्ये निजगीर्गुणेन सता हृदि श्रीमति सश्रयाय ।। ४ ।। लिलोचनाचार्यवच प्रसादाद् दुर्गस्य वृत्ति सुगमा यदीयम् । क्वचित् क्वचिन्मे वचसोऽवकाश शिलो-वृत्या घटते तथापि ।।५।। इति करणकुलालड्करणश्रीदेवनाथसमादिष्टपण्डितकर्मधरविरचिते कातन्त्रमन्तप्रकाशे प्रथमः पाद परिसमाप्त ।" आदि। ग्रन्थ के आशिक अध्ययन से ही ग्रन्यनाम की सार्थकता के लिए अनेक प्रमाण प्राप्त हो जाते है। ४. कातन्त्र रूपमाला वादिपर्वतवत्री मुनीश्वर भावसेन ने प्रक्रियाक्रम से कातन्तसूत्रो की दो सदर्भो मे व्याख्या की हे । प्रथम सन्दर्भ के सजासन्धि, स्वरसन्धि, व्यजनसन्धि, विसर्जनीयसन्धि, स्वरान्त पुल्लिङ्ग, स्वरान्त स्त्रीलिड्ग, स्वरान्त नपुसकलिग, व्यजनान्त पुलिङ्ग, व्यजनान्त स्त्रीलिङ्ग, व्यजनान्त नपुसकलिङ्ग, व्यजनान्त अलिड्ग, कारक, समास एव तद्धितप्रकरणो मे ५७४ सूत्र व्याख्यात है। इनमे पड्गीय तया कश्मीरी सस्करणो के कातन्त्रव्याकरण की अपेक्षा कुछ सूत्र बिलकुल भिन्न है तथा कुछ की योजना भिन्न स्थानो मे की गई है। जैसे "वा विरामे" (२।३।६२) सून अनेक हस्तलेखो तथा मुद्रित कातन्त्र ग्रन्थो मे "अघोषे प्रथम" (२।३।६१) के पश्चात् पठित है। तदनुसार इसका अर्थ है धुट्सशक प्रथम वर्ण के स्थान मे तृतीय वर्णादेश विकल्प से होता है । अत 'पाक, वाग्' दो रूप निष्पन्न होते हैं । परन्तु कातन्त्र रूपमाला मे व्यजनसन्धि के अन्तर्गत मोऽनुस्वार व्यञ्जने" (सू० ६१) सूत्र के पश्चात् पढकर पदान्त मकार के स्थान मे वैकल्पिक अनुस्वारादेश किया जाता है, जिससे पदान्त मे विद्यमान होने पर भी 'देवानाम्, देवाना' ये दो रूप साधु माने जाएंगे। ऐसी प्रक्रिया अन्यत्र नही देखी जाती। फिर भी इतना निश्चित है कि कातन्त्र व्याकरण का सम्यग् बोध इस ग्रन्थ द्वारा पयप्ति सरल ढग से किया जा सकता है। द्वितीय सन्दर्भ के तिइन्त तथा कृदन्त प्रकरणो मे ८०६ सूत्र व्याख्यात हैं। इस प्रकार ५७४ --८०६=१३८३ सूत्रो की व्याख्या इसमे की गई है। वररुचि
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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