SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा गया है । प्रारम्भ मे जिनेश्वर तथा भारती का स्मरण कर ग्रन्थरचना की प्रतिज्ञा की गई है - સૂર્ભુવ સ્વસ્વયીશાન वरिवस्य स्मृत्वा च भारती सम्यग् वक्ष्ये अन्त मे गुरु का नाम तथा रचनाप्रयोजन श्री मुनीश्वरसूरीक शिष्येण जिनेश्वरम् । कातन्तदीपकम् ॥ नाम्ना इस प्रकार दिया गया है लिखितो मुदा । कातन्त्रदीपक ॥ मुनिहर्ष मुनीन्द्रेण વ્યને વિમુનિર્ભ્રાજ્યેાનવુંહિવૃદ્ધયે ॥ તિ । ३ कतिसमन्तप्रकाश कातन्त्रव्याकरण के रहस्यो को स्पष्ट करने के उद्देश्य से श्रीकर्मधर ने इस ग्रन्थ की रचना की है । चार खण्डो मे विभक्त ४६५ पत्रो का इसका हस्तलेख अलवर (रा० प्रा० वि० प्र० ) मे प्राप्त है । ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ४० श्लोको मे हुसेनशाह के मन्त्री भवनाथ का वशपरिचय चित्रित किया गया है जिनके आदेश से यह ग्रन्थ लिखा गया है । ग्रन्थकार कर्मधर के साथ भवनाथ का क्या सबंध है ? स्पष्ट नही कहा जा सकता । अपने ग्रन्थ की उपयोगिता के सन्दर्भ मे ग्रन्थकार ने यह बताया है कि यद्यपि आचार्य त्रिलोचन की टीका से दुर्गसिंह की वृत्ति सुगम हो जाती है, तथापि उन्होने जो कुछ आवश्यक तथ्य छोड दिए है उनकी योजना मैंने यथास्यान कर दी है अत लवन कर्म के अनन्तर क्षेत्र मे शेष पडे हुए 'शिल' तथा 'उञ्छ' का भी जैसे महत्त्व होता है उस प्रकार मेरे भी प्रकृत ग्रन्थ का कुछ महत्त्व तो अवश्य ही है । ग्रन्थरचना के आदेष्टा भवनाय का परिचय इस प्रकार दिया गया है--कायस्थवशीय श्रीमेघ के आत्मज त्रिलोचन, उनके आत्मज गदाधर, उनके पुत्र भूधर तथा उनके पुत्र भवनाथ हुए | इन्हे माह हुसेन का मन्त्रीपद प्राप्त होने पर अपने प्रशसनीय कार्यकलापो के कारण देवनाथ की पदवी प्राप्त हुई थी । ग्रन्थकार ने आशीर्वादात्मक मड्गलाचरण करते हुए लक्ष्मी का स्मरण किया है । इससे ऐसा लगता है कि ग्रन्थकार ने ग्रन्थवणित विषयो मे तो शेषपूर्ति की ही है, मडुगलाचरण मे भी शेपपूर्ति की है। मङ्गलाचरण मे शिव, सरस्वती, गणेश की तुलना मे लक्ष्मी का स्मरण अत्यन्त ही विरल देखा जाता है | दुर्गसिंह तथा त्रिलोचनदास ने तो लक्ष्मी का स्मरण नही किया है। उक्त विवरण का ग्रन्थाश इस प्रकार है શેયારોપળામ ળતિારે જાન્તાનૃત્તિ વિન્વિતામ્, પશ્યન્તી રદ્દસિ સ્વિતાપિ પરિભ્રાન્ત્યા ચિયાનુર્મુ
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy