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________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा दोनो की तुलना द्वारा यह बतलाने की चेष्टा की जाएगी कि हेम की सजाए पाणिनि की अपेक्षा कितनी सटीक और उपयोगी है । ७८ संस्कृत भाषा के प्राय सभी ग्रंथो मे सर्वप्रथम पारिभाषिक मज्ञाओ का एक प्रकरण दे दिया जाता है। इससे लाभ यह होता है कि आगे सज्ञा शब्दो द्वारा सक्षेप मे जो काम चलाये जाते है वहा उनका विशेष अर्थ समझने मे बहुत कुछ सहूलियत हो जाया करती है । संस्कृत के व्याकरणग्रथ भी इसके अपवाद नही । वास्तव मे व्याकरणशास्त्र मे इस बात की और अधिक उपयोगिता है, यत विशाल शब्दराशि की व्युत्पत्ति की विवेचना इसके बिना संभव नही है । उसमे विशेष कर संस्कृत व्याकरण में जहां एक-एक शब्द के लिए सविधान की आवश्यकता पड़ती है । संस्कृत के शब्दानुशासको ने विभिन्न प्रकार से अपनी-अपनी सज्ञाओ के साकेतिक रूप दिए हैं । कही कही एकता होने पर भी विभिन्नता प्रचुर मात्रा मे विद्यमान है | यही तो कारण है कि जितने विशिष्ट वैयाकरण हुए उनकी रचनाए अलग-अलग व्याकरण के रूप मे अभिहित हुई । विवेचन शैली की विभिन्नता के कारण ही एक संस्कृत भाषा मे व्याकरण के कई तन्त्र प्रसिद्ध हुए । हेमचन्द्र की सर्वत्र व्यावहारिक प्रवृत्ति है, इन्होने सजाओ की परया बहुत कम रखकर काम चलाया है । इन्होने स्वरो का सजाओ मे वर्गीकरण करते हुए, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, नाति, समान और सन्ध्यक्षर ये छ सज्ञाएसकलित की हैं । ये है घुट्, वर्ग, घोषवान्, अघोप, अन्तस्थ, और शिट् । स्वर सज्ञाओ तथा व्यजन सज्ञाओ का विवेचन कर लेने के बाद एक स्वसज्ञा का विधान है। जिसका उपयोग स्वर एव व्यजन दोनो के लिए समान है । स्वर तथा व्यजन विधान सज्ञाओ के विवेचन के अनन्तर विभक्ति, पद, नाम, और वाक्य मनाओ का बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है । पाणिनीय व्याकरण मे इस प्रकार के विवेचन का ऐकान्तिक अभाव है । पाणिनि तो वाक्य की परिभाषा देना ही भूल गए हैं । परिवर्ती वैयाकरण कात्यायन ने सभालने का प्रयत्न अवश्य किया है, पर उन्होने वन की जो परिभाषा एकतिडवाक्यम्' दी है, वह भी अधूरी ही रह गई है । वाद के पाणिनीय तन्त्रकारो ने इसे व्यवस्थित करना चाहा है, किन्तु वे 'एकतिङ वाक्यम्' के दायरे से नही जा सके है । फलत उनकी वाक्य परिभाषा सीधा स्वरूप लेकर उपस्थित नही हो सकी है और उसकी अपूर्णता ज्यो की त्यो बनी रही है । किन्तु हेम ने वाक्य की बहुत स्पष्ट परिभाषा दी है 'सविशेपणमाख्यात वाक्यम्' १।१।२६ 'त्याद्यन्त पदमाख्यतातम्, साक्षात् पारस्पर्येण वा यात्याख्यातविशेषणानि त प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा सहित प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमान वा आख्यात वाक्यमज्ञ भवति ।' अर्थात् मूल सूत्र मे सविशेषण आयात वाक्य की वाक्यसना दूर
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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