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________________ सत्य : ६५ वाणी का सत्य है । मन ने जो सत्य का रूप लिया था, जब वह मनरूपो कुए का पानी वाणी के डोल मे आएगा, तभी वाणी का सत्य बनेगा । और जब वह मन एव वाणी का सत्य शारीरिक व्यवहार और कर्म के रूप मे ढलता है, तो वह काया का सत्य बनता है । जो क्रोध से, हास्य से, लोभ अथवा भय से-किसी भी अशुभ सकल्प से असत्य नहीं बोलता, वही सच्चा ब्राह्मण है। जहाँ ये तीनो शक्तियां कदम-से-कदम मिलाकर चलती है, वही जीवन सत्यमय, अमृतमय बनता है। जिसका मन भी सत्य का प्रकाश लेकर आत्मा की ओर दौडता है, वाणी भी ऋतम्भरा होकर आत्मा की ओर लपकती है और शरीर का प्रत्येक स्पन्दन सत्यमय होकर आत्मा की ओर गति करता है, वही सत्य का पर्ण साधक है ।२।। केवल वाणी के सत्यवादियो को सम्बोधित करते हुए भगवान महावीर ने कहा था-"यदि तुम्हारे अन्दर क्रोध है, अभिमान है, हास्य, लोभ अथवा भय है, तो असत्य तो असत्य है ही, परन्तु उस स्थिति मे बोला गया सत्य भी असत्य ही है, क्योकि वहा अन्तर्जागरण नहीं है । क्रोध अपने आप से १-कोहा वा जड वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुस न वयइ जो उ, त वय वूम माहए ।। __ --उत्तरा० २५/२४ २-'मरणयय कायसुसबुडे जे स भिक्खू ।' -दशवै० १०/७
SR No.010480
Book TitleSanmati Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSureshmuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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