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________________ ६४. सन्मति-महावीर महत्व दिया जा रहा था, और उसे प्रसन्न करने के लिए जीवन मे हजारो गलतियाँ आ गई थी। भगवान महावीर ने उस व्यक्तिपूजा को तोड कर सत्य की उपासना का महान् आदर्श जनता के सामने रखा और अपनी जोरदार भाषा मे कहा-"सत्य ही भगवान है।' वह भगवान् तो तुम्हारे मन-मन्दिर मे ही विराजमान है। अत उसी की एक निष्ठा से उपासना करो, उसी मे रत रहो, उसी मे दृढ रहो और उसी की प्राप्ति के लिए साधना करो।" __ दूसरी बात । तत्कालीन धर्म-नेताओ और सत्य-वक्ताओं ने वाणी के सत्य को ही सत्य समझ लिया था। पहली मन की और अन्तिम पाचरण की भूमिका गायब हो गई थी । सत्य, केवल वाणी पर नाच रहा था, मन और शरीर उसके प्रकाश से सूने थे। भगवान महावीर ने इस भ्रान्त विचारधारा पर भी करारा प्रहार करते हुए कहा-"सत्य का महाप्रवाह तो त्रिवेणी के रूप में प्रवाहित होता है । उसकी एक धारा मन में, दूसरो वाणी पर और तोमरो धारा शरीर मे होकर बहती है। मन, वाणी और कम की एकरूपता पर चलने वाला सत्य हो वास्तविक सत्य है। मन में सत्य का सकल्प होना, सत्य सोचना-यह मन का सत्य है। जो अन्तर्मन मे है, वही जब बाहर बोला जाता है, तो वह -पच्च सुभगव । -प्रश्न व्याकरण २-नणगय वयसच्चे सायसच्चे ।।
SR No.010480
Book TitleSanmati Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSureshmuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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