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________________ प्राकचन । R कारुके नाम पहले तीन काहोंमें मानव विश्रुक प्रकृतिका होकर रहा, जैन पुराणों में चित्रित किया गया है। वह सुखमा सुखमा र सुखमा काल था । सच योग् यानन्द ही बानन्द था उस काकडे ईर्ष्या द्वेष और विशेषके लिये स्थान न था । मानव प्राकृतिक जीवनको बिता रहा था। जैन पुगण बताते हैं कि तब मानव गृहस्थी नहीं बनाना था - या औलादकी गमता और उनका झंझट उसे नहीं सताता था। युगल नर-नारी कामभोगमें जीवन बिनाते थे । उनकी आवश्यकतायें भी परिमित थीं; जिनकी पूर्ति वह कलावृक्षों से कर लिया करते थे । आधुनिक इतिहासके अनुरूप ही मान्यता - यह बात हम अन्यत्र बता चुके हैं।' घोर घर मानव भई बाब जगृत हुआ-मेरे तेरेकी ममताने नसे जीवनको संघर्षमय बनाया। झगड़में तीसरी जरूरत पड़ती है। तीसरा कहीं बाहरसे नहीं मानेको बामानवोंमेंसे ही वह ढूंढा गया। बड 'मनु' कहलाया | 'कुलका ' मी उसे कहते थे, क्योंकि उसने मानवको 'कुल' में रहकर जीवन बिताने की शिक्षा दी । कालकमसे ऐसे कुकका मनु एक-दो नहीं पूर चौदह हुये, उनके नामों और कामों का वर्णन हम पहले भाग का चुके हैं। जैनधर्मके संस्थापक ऋषमदेव | सर्व मन्त्रिम मनु नाभिराय थे। उनके पुत्र ऋषनदेव नव वृषभदेव हुये, जिन्होंन मानवको सम्बनविताना सिखाया जा १-पहला भाग मोर 'बेनसिद्धांत भास्कर' भाग १३, १०९-१६
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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