SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२] सकिन हाल । भी माने प्रचना की थी। सन् १६०१ में उनीने या रका था। इस प्रकार कला साहित्य प्रांगणको अनेक बैन कवियों सुशोमित किया था। जैनकला-विजयनगर साम्राज्य-कार में साहित्यके साथ कमकी भी प्रचुर पृद्धि हुई थी। काकी श्री दिमें भी जैनोंका सहयोग अपूर्व बा। काका प्रधानकार्य मानव हृदयमें स्फूर्ति मोर उल्लासको नागृत करना है। कलाकृति से मात्मविभोर बनादे, यही काकी विशेषता है। जैनकला इन बातों में सर्वोपरि रही है। यह · स. शिव.सन्दरका मूर्तिमान रूप है। इस समयकी निर्मित विशालकाय गोमटेश्वाकी भन्ब मूर्तियां, जो वेणूर और कारकसमें है, इसकी साक्षी है। सत्यमोर शिव (निर्वाण) उनमें गुथा हुमा है और उनका सौन्दर्य निहारते रहने की वस्तु है। ग्यो (विजयनगर) के जैन मंदिरों के विषय में भी यही कथन चरितार्थ होता है। वह स्थान अतीव रमणीक है। उसपर का कारकी पैनीछैनी र मेमाकी पत्री वसूलने वहां नयनाभिराम मंदिर बनाये थे। विजयनगरकी मयुग-कलाके ये अनूठे नमूने थे। द्राविड़ शैलीको अपनाकर विजयनगरके शिलियों ने एक निगली ही विजय नगर शैलीको जन्म दिया था। उनके मंदिर और मतियों कहा दर्शनीय नमूने है। उनका लक्षण कार्य और संग देखनेकी बात है। नोमे सारे देशको ही नमी कलासे में दिक 1-Jainism and Karnataka Culturo po -100.
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy