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________________ १११] संडिस जैन इतिहास | १-माहार, २-अभय, ३- भैषज्य और ४ - ज्ञानका दान वह दिया करते थे। उनसे हिंसा, असत्य, चौर्य, परदारा संभोग और कोभ दुर्गुण दूर रहते थे। वह परम धर्मनिष्ठ जैन जो थे । वह सद ही धर्म पमागनामें निम्त रहते थे। जिनेन्द्रदेव की कीर्तिगाथा सुनने में उनके कान सदा ही बगे रहते थे। जिहा निरन्तर जिनेन्द्रके गुणगान से पवित्र होती रहती थी । शरीर सदा उनके डी समक्ष नत- बिनस रहता था और उनकी नाक केवळ जिनेन्द्र चरणकमकों की परमसुगंधी सूचनेमें मन रहती थी। जिनेन्द्रकी सेवा के लिए उनका सर्वस्व समर्पित था। निस्सन्देह दण्डाचिप इरुप गजभक्त धर्मात्मा और पके जैन थे । सन् १३८२ ई० में उन्होंने चिंगकपेट जिलेके तिरुप्परुचि कुणरु नामक ग्रामके प्राचीन " त्रैलोक्यनाथ बन्ती” नामक जिनालय के किये भूमिदान दिया था । उससमय हरिहररायद्वितीय शासनाधिकारी थे। यह भूमिदान इरुगपने राजकुमार बुक्कके पुण्य-बर्द्धन हेतुसे दिया था। इससे ज्ञात होता है कि इरुगपने पहले चिंगलपेटमें बुकके भाधीन रहकर राजसेवा की थी। उस मंदिरका मंडप भी सेनापति इरुगपने अपने गुरु पुष्पसेनकी नाज्ञासे निर्माण कराया था । उपरान्त वह विजयनगर राजधानी में जाकर स्म्राट् इव्हिस्य द्वि० की आज्ञा का पालन करने बगे थे । उनको राजमंत्रीका महतीपद बड़ी मस हुआ था। विजयनगर में उन्होंने नयनाभिराम कुन्थुजिनालय निर्माण कराया था जो १६ कावरी सन १३८६ ई० को बनकर तैयार हुआ था। इस मंदिरको उन्होंने श्री सिंहनाद्याचार्य के उपदेशसे बनवाया था । कह इम १६२ । २-मेबै० १० २०५ । •
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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