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________________ ६] संक्षिप्त जैन इतिहास ।। धान्यकी सदैव प्रचुरता रही * इससे सम्यताके विकास में बड़ी सहायता मिली | जब मनुष्यका चित्त शान्त रहता है और जब किसी प्रकार उनका मन डोवाडोल नहीं होता तभी ललितकला, विज्ञान और उच्च कोटिक साहित्यका प्रादुर्भाव होता है। प्राचीन भारतवासियोंके जीवनको सुखमय बनानेवाले पदार्थ सुलभ थे ।* इसीलिए उसकी सम्यता सदैव अग्रगण्य रही। चारों ओरसे सुरक्षित होनेके कारण भारतका अन्य देशोसे विशेष सम्पर्क नहीं हुआ। फलतः यहां सामाजिक संस्थाएँ ऐसी दृढ़ होगई कि उनके बन्धनोंका ढीला करना अब भी कठिन प्रतीत होता है। यहाके मूल निवासियोपर बाहरी माक्रमणकारियों का कभी अधिक प्रभाव नहीं पड़ा । जो अन्य देशोंसे भी आये वे यहांकी जनतामें मिल गये और उन्होंने तत्कालीन प्रचलित धर्म और रीतिरिवाजोंको अपना * पत्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें भारतमें आए हुए यूनानी लेखकोंक निम्न वाक्य इस खुवियों को अच्छी तरह प्रकट कर देते है। मेगस्थनीज लिखता है:-"भारतमें बहुतसे बड़े पर्वत है, जिनपर हर प्रकारके फल-फूल देनेवाले वृक्ष बहुतायतसे है और कई लम्बे चौड़े उपजाऊ मैदान है, जिनमें नदिया वहती है। प्रथिवीका बहुमाग जलसे सींचा हुआ मिलता है. जिससे फसल भी खूब होती है।...भारतवासियोंके जीवनको सुखनय बनानेवाली सामग्री मुलभ है, इस कारण उनका शरीर गठन भी उत्कृष्ट है और वह अपनी सम्मानयुक्त शिक्षा-दीक्षाके कारण सवमें सलग नजर पड़ते है। बस्ति कलानोंमें भी वे विशेष पटु है । फलोंके अतिरिक्त मृगर्भसे उन्हें सोना, चादी, ताम्बा, लोहा, इत्यादि धातुऐं भी बाहुल्यतासे प्राप्त है। इसीलिये कहते है कि भारतमें कभी अकाल नहीं पड़ा और न पहा खाद्य पदार्थकी कठिनाई कभी अगाड़ी आई।" -मैक्रिन्डल, एन्शियेन्ट इन्डिया, ० ३०-३२.
SR No.010473
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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