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________________ ४] संक्षिप्त जैन इतिहास । भावके अनुसार पुनः वही सत्य, वही निरापद विजयमार्ग तात्का. लीन जनताको दर्शाया था। इन तीर्थंकरों से वीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थकालमें श्री रामचन्द्रनी और लक्ष्मणनी हुये थे। वाईप ती कर नेमिनाथनीके समकालीन श्री कृष्णजी थे; जिनके साथ श्री नेमिनाथनीकी ऐतिहासिकताको विद्वान स्वीकार करने लगे हैं, क्योंकि भगवान पार्श्वनाथनीसे पहले हुये तीर्थङ्करोके अस्तित्वको प्रमाणित करनेके लिये स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलता नहीं हैं। किन्तु तो भी जैन पुराणोंके कथनसे एवं आजसे करीब ढाई तीन हजार वर्ष पहले बने हुये पाषाण अवशेषों अथच शिलालेखो व बौद्धग्रन्थोंके उल्लेखोंमे शेष जैन तीर्थङ्कगेंकी प्राचीन मान्यता और फलतः उनके अस्तित्वका पता चलता है । तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथजीको अब हरकोई एक ऐतिहासिक महापुरुष मानता है और अन्तिम तीर्थङ्का भगवान महावीरजीके जीवनहालसे जैनधर्मका एक प्रामाणिक इतिहास हमें मिल जाता है। यह मानी हुई बात है कि धर्मात्मा चिना धर्मका अस्तित्व _ नही रह सका है। अतएव किसी धर्म का इतिजैन इतिहास। - हास उमके माननेवालोंका पूर्व-परिचय मात्र कहा जा सक्ता है । जैनधर्मके प्रातिपालक लोग जैन कहलाते है। १-इपीओफिया इन्डिका भा० १ पृ. ३८९ प सक्षट्राए हु० भूमिका पृ० ४ । २-मथुग कंकाली टीलेका प्राचीन जैन स्तूप आदि । ३-हाथीगुफाका शिलालेख-जविओसो. भा० ३ पृ. ४२६-४९० । ४-भ. महावीर और म० बुद्ध पृ. ५१ व ला० म० पृ. ३० । ५-हमारा भगवान पार्श्वनाथ की भूमिका ।
SR No.010473
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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