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________________ अन्य राजा और जैन संघ। ७७. पीछी है उनका नाम 'कन्ह' लिखा हुआ है। इसपर कुशन मं० ९.५ का एक लेख है जिसमे कोटियगण थानियकुल और वैरशाखाके आर्य अरहका उल्लेख है। इन गणादिका पता संभवत श्वेताबरोकी स्थिविरावलीमे लगता है। इस दशामे 'अर्धफालक' संप्र. दायको श्वेताबरोंका पूर्वज मानना अनुचित नहीं है। ___ इस पटक मुनि अर्धफालक सम्प्रदायके मालूम होते है, क्योंकि इनके पास कपडेका केवल एक टुकडा' (खंडवस्त्र ) ही है । और यह चित्र है भी उस समयका जब श्वेतावर और दिगंवर भेद पूर्णतः व्यक्त होनेके सन्निकट था । एमे समयमे जैन सघमें एक महा __ क्रान्निसी उपस्थित हुई प्रतीत होती है । यही कारण है कि नं० १६ व नं० १७ के प्लेटोमे सवस्त्रधारी मूर्ति और साधुतक दर्शाये गये है । माटम एसा होता है कि मौर्यकालमे ईसवी सन्के प्रारम्भिक समयतकके अन्तरालमे वह शाखा जो प्राचीन निग्रंथ (नग्न) मंबसे अलग हुई थी, इतनी बलवान होगई थी कि वह अव तीर्थों और मूर्तियोंपर भी अपना अधिकार स्थापित करनेकी चेष्टा करने लगी थी । भगवान् कुंद्रकुदाचार्य इसी समय हुये थे और उनके वक्तव्योंमें स्पष्ट है कि उनके समयमें अवश्य ही जैन मुनि वस्त्र धारण करने लगे थे, अपने मन्तव्यको पुष्ट करनेवाले ग्रन्थ रचने लगे थे और मूर्ति आदिक लिये झगड़ने लगे थे। आचार्य महाराजने. तिलतुपमात्र परिग्रह रहित दिगंबर मुनिको ही चैत्यग्रह बतलाया है। उन्होंने लोगोंका ध्यान व्यवहारकी ओरसे हटानेका प्रयत्न किया था, क्योंकि उसमें निवृनि मार्गके उपासक साधु लोग भी बुरी तरह फंस
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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