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________________ ७२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | (५) जैनोंकी विशेषता अणुवाद ( Atomic Thoery ) में है और भारतीय दर्शन में उन्हींके यहां इसका सर्व प्राचीन रूप मिलता है | आजीविक संप्रदाय को भी यह नियम प्रायः जनधर्मके अनुसार ही स्वीकृत था | (६) जैनोंके द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानमें 'पूर्व' नामक भी १२ ग्रंथ थे । उन्हीं में से अष्टाङ्ग महानिमित्तज्ञानको आजीविकोंने ग्रहण 1 २ किया था । (७) मक्ख लिगोशालने आजीविक संप्रदाय में 'चत्तारि पाणगायं चत्तारि अपाणगायं' नियम नियत किया था जो जैनोंके महेखनाव्रत के समान था । 3 ४ (८) आजीविक संप्रदायने जैनोंके कतिपय खास शब्दों (Terms) को ग्रहण कर लिया था; यथा 'व्त्रे सत्ता, सव्ये पाणा, सव्बे भूता, सव्चे जीवा, 'संज्ञी', 'असंज्ञी', 'अधिकम्म' इत्यादि । (९) गोशाला है अभिजाति सिद्धान्त नैनोंके पट्लेश्या सिद्धान्त के सदृश है ।" (१०) गोशाल अपनेको 'तीर्थंकर' प्रगट करता था | तीर्थकर- मान्यता सिवाय जैनधर्मके और किसी संप्रदाय में नहीं है । (११) जीवों के एक इन्द्री, द्वेन्द्रिय मादि भेद भी जैनोंके समान मानविकोंको स्वीकृत थे । ६ इन बातोंके देखने से आजीविकों का निकास भगवान पार्श्व१ - इरिई० ६ भम० पृ० १७७ - १७८ । ३- आजी० ७ पृ.० ३१८ । ५–Js. II. Iutro ० भा० २ ० १९९ । २ आजी० भा० १ पृ० ४१. पृ० ५३-५४ । ४-वीर भा० - Js. II. Intro.
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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