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________________ MAKA ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [.. विकोंने अपने सिद्धान्त निश्चित किये थे, यह एक मान्य विषय हैं। तथापि निम्न विशेषताओंको व्यानमें रखनेसे यह स्पष्ट दृष्टि पड़ता है कि भाजीविक मतका विकास जैनमतसे हुमा श्रा: (१) आजीविक मंप्रदायचा नामकरण 'आजीविक' रूपमै इसी कारण हुमा प्रतीत होता है कि आजीविक साधु, जिनकी बाह्यक्रियायें प्रायः जन साधुओंके अनुरूप थीं, किसी प्रकारको आनीविका करने लगे थे। जैन शास्त्रोंमें साधुओंको 'मानीवो' नामक दोष अर्थात किसी प्रकारकी आनीविका करनेसे विलग रहनेका उपदेश है। वस्तुतः आजीविक साधुगण प्रायः ज्योतिपियोंकि रूपमें उस समय आनीविका करने लगे थे, यह प्रकट है। अतः उनका नामकरण ही उनका निकास जैनधर्मसे हुआ प्रगट करता है। (२) आनीविक साधुओंका नग्नभेष और कठिन परीपह सहन करनेसे भी उनका उद्गम जैन श्रोतसे हुआ प्रतिमाषित होता है । (३) आनीत्रिक साधु प्रायः जैन तीर्थंकरोंक भी भक्त मिलते थे; जैसे उपक नामझ आनीविक साधु अनंतमिन नामक चौदहवें जैन तीर्थकरका उपापक श्री। (४) सैद्धान्तिक विषयमें आनीवि जैनोंके समान ही मात्मामा अस्तित्व मानते थे और उसको 'अरोगी' अर्थात् सांसारिक मलोसे रहित स्वीकार करते थे तथा संसार परिभ्रमण सिद्धान्त भी उन्हें मान्य था। १-कहिद०, पृ. १६२ व इरिइ० भाग पृ० २६१ १२-मूलाचार- 'घादीदनिमित्त आजीवो वणिवगेद्रयादि । ३-आजी० ० ६७-६८ । ४-आजी० पृ० ५५ व ६२ । ५-लाम० पृ. ३०, मारिय-परियेसणासुत्त, दहिवा० भा० ३ ० २४७ । ६-Js. I. Iatro. XXIX. - --
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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