SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८] संक्षिप्त जैन इतिहास । थी। अशोकने इस युद्ध में जो भयानक इत्याकाण्ड देखा, उसका उसके हृदयपर गहरा प्रभाव पड़ा ! उसकी मात्मा इस तृशंप्त नर. संहारको देखकर भयभीत हो गई। और उसके हृदयमें दया एवं प्रेमका स्रोत वह निकला | लिङ्ग विजयने अशोकको एक कट्टर धर्मात्मा बना दिया। वह रांजलोलुपी न रहा। उसने प्रण कर लिया कि वह फिर कभी छोई युद्ध नहीं करेगा। इतना ही क्यों बल्कि उसने अपना शेप जीवन धर्म प्रचारमें व्यतीत करनेका रह संकल्प करलिया और अपने उत्तराधिकारियोंके लिये भी आदेश किया कि ' मेरे पुत्र और प्रपौत्र इस यातको सुन लें और युद्ध विजयको बुरा समझ छोड़ दें। तीर चलाने के समय भी शांति और थोड़े दण्ड देनेको ही पसंद करें । धर्मविजयको ही माली विनय समझें ।' इस आदेशमें निस अनूठे ढंगसे प्रिय-सत्यका प्रतिबिम्ब अंकित है, वह हृदयको मोह लेता है। सम्यग्दर्शन अथवा संबोधिको प्राप्त होनेपर संसारी नीव धर्मके मर्मको समझ जाता है, यह बात अशोकके उक्त हृदयोद्गारसे स्पष्ट है ।' अशोकने अपने शासनकालमें केवल एक उक्त चढ़ाई की और उसके बाद उसने धर्म-विनयके सच्चे प्रयत्न अशोकका साम्राज्य। किये थे। इतनेपर भी उसके समयमें मौर्य साम्राज्यकी वृद्धि हुई थी। उसका राज्य उत्तरमै हिमालय और हिंदुकुश पर्वततक पहुंचता था। अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान और सिन्ध उसके आधीन थे। बंगाल उसके राज्यका पर्वीय सब था | कलिंग और आंध्र देश भी उसके राज्यमें सम्मिलित थे।२ . १-भातारा० भा०.२ पृ० ९७-९८ । २-भाइ० पृ० ६८ ।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy