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________________ श्री वीर- संघ और अन्य राजा । [ १३७ सुप्रतिष्ठनगर में राजा जयसेनका राज्य था और कुबेरदत्त प्रख्यात् जैन सेठ था । इसकी पत्नी धनमित्रा सुशोला और विदुषी थी । सुप्रतिष्ठ नगर में इसने खुच चैत्य - चैत्यालय बनवाये थे । सागरसेन 1 मुनिराज के मुखसे यह जानकर कि उनके एक चरमशरीरी पुत्र होगा, वह बड़े प्रसन्न हुये थे | उनने पुत्रका नाम प्रीतंकर रक्खा था | प्रीतिंकरको उनने सागरसेन सुनिराज के सुपुर्द शिक्षा पानेके लिये क्षुल्लकरूपमें कर दिया था । सुनिराज उसको धान्यपुर के निकट अवस्थित शिखिभूधर पर्वतपरके जैन मुनियोंके आश्रम में लेगये थे और वहां दश वर्षमें उसे समस्त शास्त्रोंका पंडित बना दिया था। प्रीतिंकर अपने घर वापस आया और अवसर पाकर अपने भाई सहित समुद्रयात्रा द्वारा धन कमाने गया था । भूतिलक नगरकी विद्याधर राजकुमारीकी इसने रक्षा की थी और अन्तमें उसके साथ इसका विवाह हुआ था । बहुत दिनोंतक सुख भोगकर प्रीतंकर ने अपने पुत्र प्रियंकरको धन संपदा सुपुर्द की थी और वह राजगृह में भगवान महावीरजीके समीप जैन -मुनि होगया था। उस समय भारतके बंदरगाहोंमें भृगुकच्छ (भडौंच) खुब प्रख्यात् थी। दूर दूरके देशोंसे यहां नहान आया और जाया करते थे। तब यहाँपर वसुपाल नामक राजा राज्य करता था और जिनदत्त नामक एक प्रसिद्ध जैन सेठ रहता था । यह जैनधर्मका परमभक्त था । इसकी स्त्री जिनदत्तासे इसके नीली नामक एकं सुन्दर कन्या थी । वहींके एक बौद्ध सेठने छलसे नीलीके साथ विवाह कर लिया था | इस कारण पिता और पुत्रीको मान १-उ० पु० पृ० ७२०-७३५ | २ - केहिइ० पृ० ३१२ ।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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