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________________ ( 2 ) ७-उत्तम तप नप चाहें मग्गय, करम शिस्तर को बन है। द्वादविधि मुम्बदाय, क्यों न कर निन सकति सम ।। प्रात्मा का स्वभाव अनादि में झानावग्ग। आदि कर्मों में अत्यन्त मलीनहाना रहता है। उम मलीनता को दूर करने के लिये नप करना अत्यावश्यक है । जैसे मुवर्ण पापारण में-म बिना नपाप माना अलग नहीं होना. उमी नगह कर्म मल भी बिना तपस्या के अलग नहीं हाने । इमलिय अनशनादि बहिरङ्ग तप और स्वाध्याय श्रादि अन्ना नप में उपयाग स्थिर करना मपधर्म है। ८-उत्तम न्याग दान चार परकार, चार संघ को दीजिये । धन विजुरी उनहार, नरभव लाहो लीजिये। प्रात्मभाव को कलुपित करनेवाले गगादिभावों का त्याग करना और गगादि बढ़ानेवाले प्रत्यादि को उत्तम पात्र-माधः संत, मध्यम प.त्र-सत्यनिझानी और नैष्ठिका चार पालक, जघन्य पात्र-मस्य विधामी एवं परम निवेकवान. इनके अलावा दीन, दुखो गेगी. अज्ञानी प्राटि पुरुषों की अाहार, प्रोधि ज्ञानादि देना नया शापागनों को अभयदान देना ध्यागधर्म है। ९-उत्तम माकिंचन परिगा चाथिम भेट, न्याग करें मुनिराज जी । त्रिमना भाव उछंद, घटती जान घटाये ॥
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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