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________________ ३-उसम भाव कपट न कांजे कोय, चारन के पुर ना बम । मरल स्वभावी हाय, ताक घर बहु सम्पदा ।। मन, बचन, काय. इन तीनों योगों में कुटिलता का न पाना पाय है। यह प्रामा मामारिक माय -ममग के वश में नाना प्रकार के कपट जाल रचका दमरों को सम्पत्ति वगैरह हरण करने की चेष्टा करता है और उसकी चिन्ना में मदा नन्मय रहना है, जिममे श्राम स्वभाव का जन में नहीं रहता । इमी में यथाना प्रार्जव धर्म ।। काम है। कयोंकि अम्मा का प्रभाव मरल ज्ञानमय है अन कुटिलत -माल कपट उममें महा दूर पहने ही 7 । भव बन्धन छुट माना है। ४-उत्तम शांव धरि हिग्दै मन्नोप, करह, नपस्या देर मों। शांच मदा निदाप, धाम बड़ी समार में ।। प्रा.मा में मन्न"प एक महान गुग्ग है, जिनमें यह ज व लाभानगय के क्षया. में "न टन्द्रिा के मार्ग में मनाय अपने बाप को विकास नही हा देना और लाभ का काम परम भमन्नाप पंदा करना है. जिसमें दानी होकर या जाव नाना अनों अंर बोटे गमों का है. जिम में उसे कभी शान्ति नहीं मिलना और शौच धर्म क' काम अशान्ति म बचाना है इलिये यह जीव शौच धर्म की रक्षार्थ बहिरम शांच-स्नानादि फिर शुद्धि और अन्तरग शुदि गाई पाटि मलिन भावों में अपनी पामशुद्धि को करना है।
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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