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________________ ( ८ ) १५-पन कमाने में इल, कपट, चोरी, असत्य और ईमानी का त्याग करो। अपनी कमाई में यथायोग समी का हक मममो। -नियों के बरा न होकर उनको वश करके उमसे यण योग काम लो। परिमम, व्यायाम और नियमादि के नागशरीर को नीरोग रखो। ___ -ममा हास्याग कगे। धुरे मन से बुरी वृति होती है और सर्वथा पतन हो जाता है। १-अपने लक्ष्यको सहमदा यात सम्बो । प्रत्येक चटा लक्ष्य की मिदिही के लिये करो। -संसार में रहो, पर उमक होकर न रहो । पृथक गहना बस इसी सिद्धान्त पर चलने से मुकि हो सकती है। १-तुम्हें दुनियों में कोई हानि व लाभ नहीं पहुँचाता । जैसा बोज पोते हो, वैमा हो फल नुम्हें मिलता है। -कवल अपनी नामममी से तुम यदि संमार के लोगों को लाभ न पाओगे तो स्वयं हो तुम अपने शत्र, बनोगे। २३-म शरीर में तुम्हारी पारमा बिजली के ममान एक क्षण में निकला जायगी भोर फिर तुम ऐसे अन्धकार में केक दिए जागोगे कि जहाँ न कुछ देख सकोगे और न कुछ कर हीमकोगे। ___४-भला काम पाहे थोड़ा ही क्यों न हा. वह भी हीरे के ममान प्रकाशमान होता है। ५-अगर तुम योग और तपस्या करने में मनमर्थ हो तो मंबन्धन से छुटकारा पाने के लिये यही सरल मार्ग है कि अपने हदय में बुरी भावनाएं पैदा मन होने दो।
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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