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________________ (२०) जैन प्राचार्यों ने स्थूलतम उनकी चौदह स्थितियाँ बनलाई हैं। गुण स्थान की स्थिति मुख्य रूप से मोहक कर्मों की प्रबलता या निर्बलता पर निर्भर करती है। मोह पैदा करनेवाले कर्मो की दो प्रकार की प्रधान शक्तियाँ प्रकट करने में आई हैं(१) दर्शन (२) चरित्र । दर्शन शक्ति का कार्य प्रात्मा के वास्तविक गुणों को पालन करने का है। चरित्र शक्ति का कार्य प्रात्मा के चरित्र गुण को ढंक देने ___ यही खास कारण है कि आत्मा नात्विक रुचि तथा सत्य दर्शन होने पर भी उसके अनुसार अग्रसर होकर अपने वास्तविक स्वरूप को जानने में अमम; रहती है। उपरोक्त दोनों ही प्रकार की शनियों में दर्शन मोहवाली शक्ति अधिक प्रबल गहती है। जब तक वह शक्ति निर्मल नहीं बन जाती. तब तक चरित्र मोहवाली शनि का बल घट नहीं मकना । दर्शन मोहवाली शक्ति का बल घटते ही चरित्र माहवाली शक्ति का बल कमशः घटने लग जाता है और अन्त में वह शक्ति एकदम से ही नष्ट तक हो जाती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय. मोहनीय. वेदनीय, आयु, नाम नथा गोत्र आदि पाठ कर्मों में मोहनीय सबसे प्रधान नथा बलवान है। उसका मुग्य कारण यह है कि मोहनीय कर्म का जब तक प्राबल्य रहता है. तब तक अन्य कर्मो का बल घट नहीं मकता और उसकी ताकत घटने के साथ-ही-साथ अन्य कर्म भी क्रमशः आप-ही-श्राप हाम को प्राप्त होने लग जाते हैं। यही मुख्य कारण है कि गुण स्थानों की कल्पना माहनीय कम क तारतम्यानुसार ही करने में आई है।
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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