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________________ ( ४४ ) . भावार्थ-जोको अर्थात् अप्राशुक या जीव सहित मूल, फल, शाक, शाखा, करीर (कॉपल), कन्द, फूल और वीज नहीं खाता है वह दया की मूर्ति ही सचित्त त्यागप्रतिमाघारी है । यह आवश्यकता होने पर मात्र शरीर की रक्षार्थ इन वस्तुओं को पकी हुई व छिन्न मिन्न की हुई दशा में खा सकता है। पके फलों का गूदा ले सकता है। व पानी कच्चा न पीकर उष्ण या प्राशुक पीवेगा जो लौंग फुटी हुई डालने से अपना रंग बदल देता है। (६) छठी श्रेणी-रात्रिमुक्ति त्याग । अन्नं पानं खादा लेद्यं, नारनाति योविभावर्याम् । सचरात्रि भुक्तिः विरतः , सत्वेष्वनु कम्यमान मनाः॥१४२॥ भावार्य-जो जीवों पर दया भाव रखने वाला रात्रि में बन, पानी, मादेकादि खाद्य, व चाटने योग्य चटनी भादि पदार्थों को नहीं खाता है वह रात्रि मुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। __ रात्रि को न खाने का अभ्यास तो पहिली प्रतिमाधारी भी शुरू कर देता है यथा सम्भव जल भी नहीं पीता है परन्तु देशकाल व्यवस्था के होने से यदि वह नहीं बच सके, सो जितना बच सके अपवे को रात्रि के खान-पान से बचावे इस छठे दरजे में आकर तो उसे नियम से न स्वयं खाना-पीना होगा न वह दूसरों को रात्रि के समय खिलाए-पिलाएगा।
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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