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________________ ( २८ ) अज्ञान व क्रोधादि विकारों से रहित ऐसा सर्वज्ञ पीत राग ही सच्चा देव है । जो सर्वज्ञ वीतराग शरीर सहित होकर उपदेश देते हैं उन्हें अरहन्त भगवान कहते हैं तथा जो शरीर रहित शुद्ध परमात्मा है वे सिद्ध भगवान हैं । अरहन्त भगवान का जो धर्मोप्रदेश - होता है उसी को प्रकाश करने वाले निश्चय और व्यबहार नय से व स्याद्वाद के द्वारा वस्तुओं का स्वरूप झलकाने वाले प्रमाणीक starगी ऋषियों के व तदनुसार अन्यों के रचे हुए जैन शास्त्र हैं जो परिग्रह व श्रारम्भ के त्यागी होकर निरन्तर ज्ञान ध्यान तप में ली हैं वे ही सब गुरु हैं। इनमें जो दूसरे साधुओं को दीक्षा शिक्षा देते हैं वे गुरु आचार्य हैं, जो दूसरों को शास्त्र ज्ञान देते हैं वे गुरु उपाध्याय हैं व जो मात्र साधन करते हैं वे साधु हैं । जैनमत में अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु को ही परम पदवी धर व पूज्यनीय मानते हैं - इन्हीं को नमस्कार हो ऐसा बताने वाला प्रसिद्ध णमोकार मंत्र इस तरह हैं णमो अरह ताणं (अरहंतो को नमस्कार हो) णमो सिद्धाणं (सिद्धों को नमस्कार हो) णमो श्रइरीयाणं (आचार्यों को नमस्कार हो) णमो उवज्झायाणं (उपाध्याओं को नमस्कार हो) णमो लोएसव्वसाहूणं (लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो) इस मंत्र में ३५ अक्षर हैं। सात तत्वों का संक्षेप से या विस्तार से शास्त्रों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करना सो व्यवहार सम्यग्ज्ञान है । साधु और गृहस्थ के योग्य आचरण करना सो व्यवहार सम्यग्चरित्र है ।
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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