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________________ आस्था का महत्व साधना है, वहा जैनधर्म नही है । यदि साधक को जैनधर्म की साधना करनी है, तो उसे सब से पहले मिथ्यात्व और फिर अविरति आश्रव को छोडना होगा और सम्यक्त्व तथा यथाशक्ति विरति अपनानी होगी। तभी वह आराधक हो सकेगा। प्यासा व्यक्ति स्वय जलाशय के निकट जाता है और उससे पानी लेकर अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करता है, किंतु जलाशय स्वयं चलकर प्यासे के पास नही पाता। इसी प्रकार धर्मेच्छुक स्वयं धर्म के अनुकूल बनकर उसे स्वीकार कर सकता है, धर्म उसकी इच्छानुसार नही बनता । जो लोग, जन सुविधानुसार धर्म को बदलने का कहते हैं, वे अनभिज्ञ हैं। उनके हाथ धर्म नही, अधर्म ही लगता है। सोने का महत्व तभी तक है, जबतक कि वह अपने पाप मे शुद्ध और निर्मल रहे और सर्वोपयोगी बनने के लिए अपने मे हलके तत्त्व का मिश्रण नही होने दे। यदि उसने हलके तत्त्व का मिश्रण करके अपना केरेट गिराया, तो न तो वह शुद्ध एव असली रह सकेगा और न उसका वह महत्व-मूल्य ही रहेगा। दूसरो की सुविधा के लिए अपना रूप बिगाड कर महत्वहीन बनना तो अपने को ही मिटाना है। यही बात धर्म के विषय में भी है। - आस्था का महत्व आस्था-श्रद्धा के महत्व पर हम पहले लिख चुके हैं। यहाँ फिर हम उसी विषय की चर्चा कर रहे हैं । सम्यक्त्व के पांच लक्षणो मे पूर्वाचार्यों ने पहला स्थान 'सम' को दिया है।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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