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________________ सम्यक्त्व विमर्श और चक्रवर्ती जैसे अद्वितीय महान् योद्धाओ को लाखो शत्रु भी नही डिगा सकते, उसी प्रकार क्षायिक सम्यक्त्वी के लिए विश्वभर में कोई भी खतरे का स्थान नही है। जो कुछ खतरे हैं, वे क्षयोपशम सम्यक्त्व के लिए ही हैं । जघन्य और मध्यम प्रकार की स्थिति मे उस पर खतरे के कारण असर कर सकते है और वह उनकी झपट मे प्राकर, अपने अमल्य रत्न को गंवाकर, बदले मे मिथ्यात्व रूपी पत्थर अपना लेता है। इसीलिए परम हितैषी भगवतो ने खतरो से सावधान और रक्षको की छाया मे रहने का निर्देश किया है। सम्यग्दृष्टि के कारण सम्यग्दृष्टि का मूल कारण तो जीव की अपनी सम्यगपरिणति है । भव्य होना, शुक्ल-पक्षी होना और महामोहनीय की ७० कोड़ाकोडी सागरोपम की स्थिति मे से ६६ कोडाकोडी सागरोपम से कुछ विशेष स्थिति को क्षय करके मिथ्यात्व की गांठ को तोड देना है । अर्थात् अनन्तानुबन्धी चोक और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियो का क्षयोपशमादि आन्तरिक कारण से सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है । बाह्य कारणो मे जिनोपासक के यहा उत्पन्न होना, या जिनोपासक से सम्बन्ध होना-मैत्री होना, सत्सग होना, जिनोपदेश सुनना, निग्रंथ प्रवचन पर मनन करना आदि है। इस प्रकार उपादान और निमित्त की अनुकूलता से सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है । ये है सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने के कारण । यो तो अभव्य तथा दुर्भव्य भी अकाम-निर्जरा द्वारा
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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