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________________ परमार्थ की छाया में होकर क्षय हो जाते हैं । यदि परमार्थ परिचय और परमार्थ सेवन होता रहे, तथा भ्रष्टदर्शनी से बचते रहे, तो यही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व दृढीभूत होते होते क्षायिक-कल्प (क्षायिक तुल्य) हो जाती है और भवान्तर मे क्षायिक सम्यक्त्व का कारण बन जाती है । क्षायिक सम्यक्त्वियो के लिए कोई खतरा नही है । चाहे जितना जबरदस्त निमित्त हो, लाखो, करोडो प्रकाण्ड कुदर्शनी अथवा भ्रष्टदर्शनी भी उस भव्यात्मा के सम्यक्त्व रत्न को नही छीन सकते। उनके मिथ्यात्व का जादु उस पर किंचित भी असर नहीं कर सकता। क्योकि उस भव्यात्मा मे मिथ्यात्व के पुद्गल हैं ही नही, तो बाहरी मिथ्यात्व उन पर कैसे असर कर सकेगा? उग्र रूप मे भयंकर छोत रोग आसपास फैला हया हो, हजारो लाखो मनष्य रोग के पंजे मे बरी तरह फंसे हो, ऐसे विषाक्त वातावरण में भी कई मनुष्य पूर्णत निरोग और सुरक्षित रहते हैं। उन्हे रोग लगता ही नही । इसका खास कारण यही कि उन मनुष्यो मे रोग को पकड़ने, रोग से प्रभावित होने वाले पुद्गल है ही नही, तब रोग असर करे तो कैसे ? वहा रोग का सहारक प्रहार भी व्यर्थ हो जाता है। वीतरागी को काम की उत्पत्ति नही होती, भले ही हजारो इद्रानियां मिलकर मोहित करने का प्रयत्न करे। सोने को कीट नही लगता, भले ही उसे कीचड मे वर्षों तक पड़ा रहने दिया जाय, क्योकि इन सब मे वैसे कारण ही नही है । इसी प्रकार जिस भव्यात्मा के आत्म प्रदेशो मे से मिथ्यात्व के दलिक सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, उनके लिए खतरे का कोई स्थान नही है। जिस प्रकार वासुदेव
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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