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________________ सम्यक्त्व महिमा २६१ व्रत और उपशम के लिए जोवन स्वरूप है। तप और स्वाध्याय का यह आश्रय दाता है । इस प्रकार जितने भी शम, दम, व्रत, तप आदि होते हैं, उन सब को यह सफल करने वाला है। अप्यकं दर्शनं श्लाघ्यं, चरणज्ञानविच्युतम् । न पुनः संयमज्ञाने, मिथ्यात्व विषदूषिते ॥ ज्ञान और चारित्र के नहीं होने पर भी अकेला सम्यग्दर्शन प्रशसनीय होता है। इसके अभाव मे संयम और ज्ञान, मिथ्यात्व रूपी विष से दूषित होते है। सुलभमिह समस्तं वस्तुजातं जगत्यामुरगसुरनरेन्द्रः प्राथितं चाधिपत्यम् । कुलबलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत् किमुत तदिदमेकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ॥१३॥ -इस जगत् मे समस्त द्रव्यो का समूह प्राप्त होना सुलभ है और धरणेन्द्र, नरेन्द्र और सुरेन्द्र द्वारा प्रार्थना करने योग्य अधिपतिपन भी सुलभ है। क्योकि इनकी प्राप्ति कर्मों के उदय से होती है । उत्तम कुल, बल, सुभगता, सुन्दर-स्त्री प्रादि सभी पदार्थ सूलभ है, किंतु एक बोधिरत्न की प्राप्ति होना अत्यत दुर्लभ है। मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा, विशुद्धं यस्य दर्शनं । यतस्तदेव मुक्त्यंगमग्निमं परिकीर्तितम् ॥५७॥ प्राचार्य श्री कहते हैं कि-जिसे निर्मल सम्यग्दर्शन है, वही पुण्यात्मा है और वही महाभाग्यशाली प्रात्मा, मुक्त है-ऐसा
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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