SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० सम्यक्त्व विमर्श लेकिन परिस्थिति में परिवर्तन बहुत हो गया है । उस समय निर्ग्रन्थो और निर्ग्रन्थ-धर्म का प्रभाव अधिक था। उस उत्कृष्ट प्रभाव के आगे मिथ्यात्व का प्रभाव दब गया था, कुछ हलका होगया था । साख्यदर्शनी परिव्राजकाचार्य शुकदेव जैसे अनेक अन्यतीर्थी प्राचार्य, यथार्थ-दृष्टि प्राप्त कर एक बड़े परिवार के साथ निर्ग्रन्थ-धर्म को स्वीकार कर चुके थे। अनेक राजा महाराजा और चक्रवर्ती नरेन्द्र, निग्रंथ-प्रवचन के आराधक थे। जहा केवलज्ञानी वीतराग भगवत जैसे परमात्मा हो और महाराजाधिराज जैसे श्रमणोपासक हो, उस समय की अनुकलता का तो कहना ही क्या । अग्रेजो के हाथ मे राज्यसत्ता रही, तो करोडो भारतीय इसाई हो गये । इस प्रकार की अनुकलता निग्रंथ-धर्म के लिए थी। वह समय इसके उदयकाल का था । यद्यपि उस समय वीतराग भगवंत और उत्तम अनगार भगवंतो का योग था और नरेन्द्र यावत् इभ्य-सेठ जैसे महान् ऋद्धिशाली श्रमणोपासक थे। उस समय भी धर्म प्रचार किया जाता था, तथापि निग्रंथ अनगारो मे, राजाओ, अधिकारियो और जनता को आकर्षित करने की लालसा, अपना मत फैलाने की तालावेली और संख्याबल बढाने की चिन्ता नही थी । वे अपनी प्रात्म-साधना मे लीन रहते थे। कोई चलाकर उनके पास प्राता, तो उसे निग्रंथ-धर्म का उचित शब्दो मे उपदेश करते, अन्यथा अपने स्वाध्याय ध्यानादि मे लगे रहते थे। यदि कभी कोई ऐसा उत्तम पात्र उनकी दृष्टि मे चढ़ता, तो कोई प्राचार्य स्वाभाविक रूप से, श्री केशीकुमार श्रमण की तरह उसे सबो
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy