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________________ २७६ केवलज्ञान के समान poror..o.m.no..................no.mar लेकर तृप्ति माननेवाला और भूख प्यास से अकुलानेवाला तथा, रोगातक से दुखी हो, औषधी चाहनेवाला भी अपने को प्रबंधक निलिप्त, अशरीरी, अयोगी एवं अनाहारी आदि कहे, तो इस प्रत्यक्ष असत्य को कौन सुज्ञ मानेगा ? एकातवादियो का खुद का उदाहरण ही उन्हे विषम स्थिति मे डाल रहा है। हॉ, तो पापो से उपरत होने और कषायो को उपशात रखने से भव्य जीव, मिथ्यात्वी से सम्यनत्वी, चारित्री, अप्रमत्त' एव क्रमशः प्रकर्मी हो सकता है। केवलज्ञान के समान सम्यक्त्व के प्रभाव शक्ति और परिणाम का विचार करते ज्ञात होता है कि यह महान निधि है । जीव की वह दशा है कि जिससे वह अनन्त अन्धकार से निकल कर प्रकाश में आ जाता है। यह केवलज्ञान की उत्पत्ति का स्थान है। सम्यक्त्व, केवलज्ञान की माता के समान है। इसकी प्राप्ति सर्व सुलम नहीं है । संसार मे इसके पात्र जीव थोडे ही होते है । जब तीर्थकर, गणधर, पूर्वधर, मन पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, जैसे महान् प्रभावशाली निमित्त होते है, उस समय सम्यक्त्व की प्राप्ति भी कुछ सुलभ हो जाती है, किंतु इस समय वैसे उत्तम निमित्तो का तो प्रभाव ही हो गया है । इस समय उन महान् पूर्वजो के वशज मनिवरो और उनकी परम पावनी वाणी का ही प्राधार है। इसी के अवलम्बन से जीव, यथार्थ-दृष्टि प्राप्त कर सकता है ।।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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