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________________ २५२ सम्यक्त्व विमर्श भेद नही जाना और सभी 'पर' को एकान्त रूप से त्याज्य बता दिया, उन्हे न तो भोजन करना चाहिए और न पानी ही पीना चाहिए। क्योकि भोजन पानी और शरीर भी 'पर' हैं । शरीर मे रहना, भोजनादि करना और इन सबसे अपने को सर्वथा भिन्न बतलाना, प्रत्यक्ष असत्य है । हम भोजन पान मे विवेक रखते हैं । विषपान और अपथ्यकारी भोजन से बचते हैं, उसको निकट ही नहीं आने देते । भोजन-पान के विषय मे हम हेय और उपादेय का विवेक रखते हैं । यह सब 'पर' होते हुए भी अनुकूल प्रतिकूल का विचार करके हेय एव प्रतिकूल का त्याग कर,उपादेय एवं अनुकल को अपनाते है, उसी प्रकार आत्मोत्थान के मार्ग मे भी अनिष्ट पर को त्यागने के लिए, ईप्ट पर का अवलम्बन लेना आवश्यक है, हितकर है और समर्थ बनाने वाला है। जो 'पर' कह कर,उपकारी तत्त्वो को भी त्याज्य बतलाते हैं, उनका उत्थान संभव नही है । परावलम्बन से पतन और उत्थान का एक सरल उदाहरण, आत्मार्थी पं. श्री उमेशमुनिजी म० ने गत (सन् १९५६) चातुर्मास मे यहाँ दिया था । वह इस प्रकार है। मनुष्य रस्सी के सहारे ऊँडे कुएँ मे उतरता है, और ठेठ तल तक पहुंच जाता है। उसे जब ऊपर आना होता है, तव भी वह रस्सी के सहारे से ही ऊपर आता है । वह नीचे उतरता है, तब भी रस्सी के सहारे से उतरता है और ऊपर चढ़ता है तब भी रस्सी का सहारा लेता है। उस समय वह यह तर्क नहीं करता कि-रस्मी तो मुझे कुएँ मे ठेठ तल तक ले
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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