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________________ २१८ सम्यक्त्व विमर्श है। वह सोचता है कि 'कहा वीतराग वाणी और कहा सरागी जीवो के रागद्वेष वर्द्धक, स्वार्थ साधक, पौद्गलिक आकाक्षाओ से भरे हुए उद्गार ? कहा त्याग-मार्ग और कहा भोग-मार्ग, कहा-ससार-मार्ग और कहा मोक्ष-मार्ग, कहा अल्पज्ञो के सिद्धात और कहा सर्वज्ञ भगवत के परम सत्य एवम् परम उत्कृष्ट सिद्धात ?' इस प्रकार मिथ्या प्रवचनो को हेय मानता हुआ वह अपने सम्यवत्व में विशेष दृढ होता है । इस प्रकार नह मिथ्याश्रुत सम्यग्दृष्टियो के लिए सम्यग्रूप परिणमता है, कितु असल मे है, तो वह मिथ्याश्रुत ही। जिस प्रकार अमृत और विष, इन दोनो मे महान् अन्तर है, एक है तारक, तो दूसरा है मारक । उसी प्रकार सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत मे भी महान् अन्तर है । सम्यक्श्रुत उद्धारक है, तो मिथ्याश्रुत डुबाने वाला है । साधारणतया विष त्याज्य है, उसी प्रकार मिथ्यात्व भी त्याज्य है। जिस प्रकार विशेष योग्यता वाला निष्णात वैद्य अथवा डाक्टर, विष के प्रकोप का शमन करने के लिए, विशेष प्रकार के विष का प्रयोग करके रोग-मुक्त कर देता है, उसी प्रकार सम्यग् परिणति वाला अधिकारी विद्वान, मिथ्यात्व रूपी रोग के-विशेष रूप से रोगी के रोग को छुड़ाने के लिए, मिथ्याश्रुत का प्रयोग कर, मिथ्यात्व मुक्त करता है अर्थात् अजैन को अजैन (उसी के मान्य) शास्त्र से समझाकर और फिर सम्यग्श्रुत की विशेषता बतलाकर सम्यग्दृष्टि करता है, यह उस अधिकारी विद्वान् की विशेषता है, किन्तु मिथ्याश्रुत की विशेषता नही है।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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