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________________ ६ सम्यक्त्व विमर्श सम्यग्दर्शन है । इसके अतिरिक्त जितना भी ज्ञान है, वह अज्ञान रूप है। क्योकि वह पूर्णानन्द की प्राप्ति मे उपयोगी नही होता। सबसे पहले विचारक को अपने आपका ज्ञान करना प्रावश्यक है । 'मैं कौन हू, मेरा स्वरूप क्या है, यह शरीर क्या है, दुनिया में दिखाई देनेवाली वस्तुओ का स्वरूप क्या है, क्या मेरे जैसे दूसरे जीव भी हैं, जीवो का स्वरूप कैसा है, यह विभिन्नता क्यो है' -इस प्रकार विचार करके वह जीव और अजीव पदार्थ का स्वरूप समझता है, साथ ही वह विश्व का स्वरूप भी समझता है । जब उसे मालूम होता है कि जीवो की अधमाधम दशा और उत्तमोत्तम दशा भी होती है । सभी जीव, स्वरूप स्वभाव और शक्ति आदि से समान होते हुए भी विभाव परिणति से प्राप्त हुई बध-दशा के कारण कोई छोटा तो कोई बडा, कोई सुखी, तो कोई दुखी, इस प्रकार विविध अवस्थाओ का अनुभव कर रहे है । जिस प्रकार हवा से उडती हुई धूल, कपडो पर लगती है, उसी प्रकार मलीन आत्माओ को कर्मरूपी धूल आकर लगती है और वही राग-द्वेष रूपी चिकनाहट का योग पाकर बंधन रूप हो जाती है । यदि जीव, प्रास्रव (धूल आने के द्वार) बद कर दे, तो नई धूल प्राकर नही लगती और सफाई करने पर पुराना मैल छूटकर आत्मा निर्मल हो जाती है । बस यही मुक्तावस्था है । जीव से लेकर शिव (मोक्ष) तक को पहिचानना और जीव से शिव होने के उपायो पर विश्वास करना ही सम्यक्त्व है । यही यथार्थ दृष्टि है। भले ही कोई व्यक्ति यह नहीं जानता हो कि 'यह
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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