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________________ २०२ सम्यक्त्व विमश करना, यह सम्यक्त्व शुद्धि के लिए आवश्यक है । २० अधिक करण मिथ्यात्व जिस प्रकार न्यून-करण मिथ्यात्व है, उसी प्रकार अधिककरण भी मिथ्यात्व है | आगम पाठो मे मात्रा, अनुस्वार, अक्षर, शब्द, वाक्य, गाथा, सूत्र आदि बढा देना, सैद्धातिक मर्यादा का अतिक्रमण करना, वस्त्र के सद्भाव मे, तथा स्त्री - पर्याय मे साधुता तथा मुक्ति का सर्वथा अभाव मानना, इत्यादि प्रकार से निग्रंथ - प्रवचन की मर्यादा से अधिक प्ररूपणादि करना, अधिक करण मिथ्यात्व है । - २१ विपरीत मिथ्यात्व निग्रंथ - प्रवचन से विपरीत प्रचार करना, सावद्य एव संसारलक्षी प्रवृत्ति करना, या उसका प्रचार करना, तथा सावद्यप्रवृत्ति मे धर्म मानना, विपरीत मिथ्यात्व है । पुण्य पाप और श्राश्रव, शुभाशुभ बन्ध रूप है, इन्हे सवर निर्जरा रूप मानना, तथा बन्ध के कारण को मोक्ष का कारण बताना, विपरीत मिथ्यात्व है । एकात निश्चय का अवलबन कर व्यवहार का लोप करना, अथवा व्यवहार को ही पकड कर, निश्चय का अपलाप करना, अनुकम्पा मे और अनुकम्पादान मे एकात पाप की स्थापना कर, पुण्य का निषेध करना, अरिहंत भगवान् मोक्ष-मार्ग के प्रवर्तक होते हैं, उन्हे संसार मार्ग के नेता कहना, इत्यादि जितनी भी विपरीतता है, वह सभी मिथ्यात्व रूप है । यह
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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