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________________ लोकोत्तर मिथ्यात्व १६५ से वैवाहिक जीवन सुखमय एव पुत्रादि संतति लाभ-युक्त मानना अयोग्य है । जिनेश्वर की साक्षी से मैथुन त्याग अथवा मर्यादा तो की जा सकती है, किंतु मैथुनी संयोग नही मिलाया जाता। परन्तु जिनेश्वर की स्थापना करके, उसके समुख गर्भाधानादि संस्कार करवाते हैं, यह लोकोत्तर-मिथ्यात्व है। सर्व त्यागी, परम वीतरागी मोक्ष-प्राप्त जिनेश्वर भगवतो की आराधना के नाम पर, त्याज्य वस्तुओ का व्यवहार करना, उनके प्रतीक को सासारिक वेशभूषा से विभूषित कर, लौकिक जैसा बना देना, कही जाने वाली धार्मिक क्रियाओ मे उनका आव्हान, विसर्जनादि करना और उनके नाम पर अनेक प्रकार का बढचढ कर प्रारंभ करना तथा उनसे शत्र, रोग, और दरिद्रता मिटाने की प्रार्थना, स्तुति, स्तोत्र और मन्त्रादि से जाप करना, सब लोकोत्तर देव विषयक मिथ्यात्व है। यद्यपि स्वार्थ-बुद्धि से जिनेश्वर भगवंतो तथा नमस्कार मन्त्रादि की आराधना करना-लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व है, तथापि यह मिथ्यात्व उस दशा मे स्वीकार किया गया है जब कि साधक अपने सासारिक अभाव की पूर्ति के लिए दैविक सहायता चाहता हो, और उसके लिए वह लौकिक मिथ्यात्व मे पडकर जैनत्व से ही दूर चला जाने वाला हो, तो ऐसे साधको की इच्छापूर्ति के लिए आचार्यों ने लोकोत्तर-मिथ्यात्व सेवन करने की विधि भी बताई है, जैसे "किसी को स्तंभित करने के लिए पीले वर्ण की माला से नमस्कार मन्त्र का जाप करे, वशीकरण के लिए लाल-वर्ण
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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