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________________ १४० सम्यक्त्व विमर्श वस्त्र मुख्यतः शीत, लज्जा तथा डाँस मच्छरादि से बचाव करने के निमित्त लिये जाते हैं। उपकरण कम से कम रखना, सुशोभित और बहुमूल्य के नही रखना, और अनावश्यक सग्रह नही करना, यह साधुता की भावना के अनुरूप है। सहनशीलता और परिणामो की धारा बढने पर, इन वस्त्रादि उपकरणो का त्याग भी किया जा सकता है। (उत्तराध्ययन २६) हा, तो निर्ग्रथधर्म मे मुखवस्त्रिकादि केवल वेश अथवा परिचय के लिए ही नही, किंतु विराधना से बचाने वाले-सयम पोषक साधन हैं और परिचय का काम तो देते ही है । अजैन परम्परामो मे कई उपकरण सयम सहायक नही होकर मात्र परिचायक होते हैं, वैसा निग्रंथ परम्परा मे नही। अन्य आराधक क्यों नहीं ? शका-क्या अहिंसा और सत्य का पूर्ण रूप से पालन करते हुए, किसी भी वेश मे रहने वाले और किसी भी प्रकार की आराधना करने वाले को पाप साधु नही मानते ? समाधान-जैन-धर्म सम्मत साधू वही हो सकता है जो जिनेश्वर की आज्ञा माने और समाचारी का पालन करे। जो जिनाज्ञा को आदरणीय नही मानता, वह जैन साधु हो ही नही सकता । दूसरी बात यह भी है कि अहिंसादि का पूर्ण रूप से चिरकाल तक पालन, न तो गृहस्थ कर सकते हैं और न अन्य क्रियाकांडो को करने वाले साधु ही कर सकते है। साधुता के प्राचार की पहली शर्त-सावध क्रिया का सर्वथा त्याग होता है ।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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