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________________ १३६ सम्यक्त्व विमर्श ही हैं। उनका सक्षेप मे परिचय इस प्रकार है, पासत्य-जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के समीप रहकर भी उनका आचरण नहीं करते और कर्म निर्जरा करने के बदले उलटे कर्मों के पाश मे, विशेष रूप से बन्धते जाते हैं। इनमे से देशपासत्थ वे हैं-जो शय्यातरपिंड नित्यपिंड, राजपिंड, अग्रपिंड और जीमनवार आदि दूषित आहारादि लेते हैं और शरीर की शोभा बढाते हैं। और सर्व-पासत्थ वे है-जो शान, दर्शन, चारित्र का पालन नही करते हुए मिथ्यात्व को अपनाये हुए केवल वेशधारी ही हैं। यथाच्छन्द-जिन्होने श्रमण-समाचारी और आगम-प्राज्ञा की उपेक्षा करदी और स्वच्छन्दाचारी बन गये। ऐसे स्वच्छन्दाचारी, अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करते हैं । सासारिक कार्यों मे प्रवृत्ति करते हुए और उत्तम प्राचार का लोप करते हुए, वे अपने कुतर्क से, विशुद्ध प्राचार मे दोष दिखाते हैं । वे क्रोधी, घमडी और सुखशीलिए अपने दुराचार का बचाव करने के लिए उत्सूत्र प्ररूपणा करते है। मर्यादा बाहर होकर स्त्रियो और साध्वियो से विशेष सम्पर्क रखते हैं। कुशील-जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार का पालन नही करके विराधना करते रहते हैं । मन्त्र,तन्त्र, ज्योतिष और वैद्यक तथा कौतुक आदि दूषित क्रिया करके आजीविका करते हैं। अवसन्न-संयम से थके हुए, मालसी बनकर जो प्रति. क्रमणादि नही करते, यदि करते हैं, तो वह भी अविधि से,
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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